..................................................................................... कैलाश वानखेड़े
Monday, December 30, 2013
धर्मेद्र सुशांत,दैनिक हिंदुस्तान में
धर्मेद्र सुशांत ने दैनिक हिंदुस्तान में 3 नवम्बर 2013 में लिखा है .......
ठोस सामाजिक संदर्भ
युवा कथाकार कैलाश वानखेड़े की कहानियां विशेष रूप से हमारे समाज की रगों में गहरे पैठी जातिवादी सोच और उसके हिंसक कारोबार का उद्घाटन करती हैं। इस तरह ये ठोस सामाजिक सच्चई को सामने लाती हैं और उसकी विद्रूपता पर सवाल उठाती हैं। इन कहानियों में अनुभव का बल तो है ही, विवेचना के विवेक की रोशनी भी है। शायद यही वजह है कि ये कहानियां शोषण करने या वर्चस्व जमाने वाली शक्तियों के प्रतिकार के लिए कोई बनावटी उपाय नहीं सुझतीं। इसकी बजाय ये उस सामाजिक ताने-बाने का रग-रेशा खोलकर पाठक के सामने रखती हैं, जिनके दम पर यह भेदभाव संभव होता है। वास्तव में वानखेड़े आग में तपते लोहे की लालिमा दिखाने से अधिक उसके आंतरिक ताप को महसूस कराना चाहते हैं। समकालीन हिंदी दलित लेखन की सशक्त बानगी इन कहानियों में दिखती है। सत्यापन, कैलाश वानखेड़े, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा),
ठोस सामाजिक संदर्भ
युवा कथाकार कैलाश वानखेड़े की कहानियां विशेष रूप से हमारे समाज की रगों में गहरे पैठी जातिवादी सोच और उसके हिंसक कारोबार का उद्घाटन करती हैं। इस तरह ये ठोस सामाजिक सच्चई को सामने लाती हैं और उसकी विद्रूपता पर सवाल उठाती हैं। इन कहानियों में अनुभव का बल तो है ही, विवेचना के विवेक की रोशनी भी है। शायद यही वजह है कि ये कहानियां शोषण करने या वर्चस्व जमाने वाली शक्तियों के प्रतिकार के लिए कोई बनावटी उपाय नहीं सुझतीं। इसकी बजाय ये उस सामाजिक ताने-बाने का रग-रेशा खोलकर पाठक के सामने रखती हैं, जिनके दम पर यह भेदभाव संभव होता है। वास्तव में वानखेड़े आग में तपते लोहे की लालिमा दिखाने से अधिक उसके आंतरिक ताप को महसूस कराना चाहते हैं। समकालीन हिंदी दलित लेखन की सशक्त बानगी इन कहानियों में दिखती है। सत्यापन, कैलाश वानखेड़े, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा),
Sunday, October 27, 2013
भाकर के भीतर की आग
तवे से बहुत छोटी सी दिखती है आग ...
लहराती हुई लगाकर पूरी ताकत ,पकाती है भाकर को
मोड़कर भी दो हिस्से नहीं होती
उसकी परत टूट नहीं पाती
जिसे कटोरी के पानी से बारबार चिकना बनाया जाता था
कि न चिपके हाथ में
न चिपक बच्चे गोद में
कि पकना ही है ज्वार की भाकर की तरह
जिसमें रहती है आग तवे से बिछड़ने के बाद भी
आग बनी रहे अपने भीतर ,माँ यही चाहती थी .
(संजीव तिवारी की वाल से साभार फोटो.इसे देखकर लिखा है ,कुछ तो भी )
लहराती हुई लगाकर पूरी ताकत ,पकाती है भाकर को
मोड़कर भी दो हिस्से नहीं होती
उसकी परत टूट नहीं पाती
जिसे कटोरी के पानी से बारबार चिकना बनाया जाता था
कि न चिपके हाथ में
न चिपक बच्चे गोद में
कि पकना ही है ज्वार की भाकर की तरह
जिसमें रहती है आग तवे से बिछड़ने के बाद भी
आग बनी रहे अपने भीतर ,माँ यही चाहती थी .
(संजीव तिवारी की वाल से साभार फोटो.इसे देखकर लिखा है ,कुछ तो भी )
Monday, October 14, 2013
एक गुमशुदा लफ्ज
उस नगर में वफ़ा एक गुमशुदा लफ्ज है
मिलना ,शब्दकोष से सजायाफ्ता होकर बेदखल हो चुका है
वक्त ,नहीं है लेकिन वक्त के नाम से दहशतजदा है वह
दिमाग के भीतर से हूक लगातार उठती है
बेसबब
बेवजह
कहकर उसे डस्टबिन के कीटाणुओं के हवाले किया जाता है .
सड जाए
गल जाए
हो जाए गायब
ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं होती
लेकिन उसीके लिए चली जाती है याद .
याद
याद ''का जो अर्थ बताया नहीं गया
न समझाया गया
और तो और कभी भी शब्दकोष में उसकी तलाश नहीं की गई
वही हरदम आगे आगे रहता है
..
वक्त बदला नहीं है
कैलेण्डर ,दिल बहलाने के लिए फडफडाता है
पिंजरे में बंद लव बर्ड्स की तरह
उसे कितना भी उडाओ नही उडती
उड़ने की कोशिश में मारी जाती है
,जिस तरह समय को ..
अभी कल ही बात है
गिने गए अठावन
जो मारे गए थे अँधेरी रात में अपने घरों से निकालकर
उनकी लाश थी
जलाया गया था
समाचार के साथ फोटो भी थे
लेकिन हत्यारा कोई नहीं
यह तो शुक्र है कि लाशों की लक्षमनपुर बाथे में गिनती हो गई
खैरलांजी में कितने मरे ?
तुम्हें नहीं पता
खैर जैसे तुम तय नहीं कर पाती हो
वैसे ही समझ नहीं पाता हूँ कि
कितना बदल गया वक्त
कितना हुआ विकास
वर्णव्यवस्था से समझ नहीं पाते अब भेद को
जैसे समझना मुश्किल होता है कि
आखिर प्यार क्या होता है
जिस वक्त तुम प्यार को परिभाषित कर लोगी
उसी दिन वर्ण व्यवस्था के मायने
समझ में आ जायेंगे
जैसे मिट्टी का रंग
हवा में घुली खुशबू
तलवे में कंकड़ की चुभन
तवे पर गर्म रोटी के पकने का अहसास
पेट के साथ मन भरने की बात ....
मिलना ,शब्दकोष से सजायाफ्ता होकर बेदखल हो चुका है
वक्त ,नहीं है लेकिन वक्त के नाम से दहशतजदा है वह
दिमाग के भीतर से हूक लगातार उठती है
बेसबब
बेवजह
कहकर उसे डस्टबिन के कीटाणुओं के हवाले किया जाता है .
सड जाए
गल जाए
हो जाए गायब
ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं होती
लेकिन उसीके लिए चली जाती है याद .
याद
याद ''का जो अर्थ बताया नहीं गया
न समझाया गया
और तो और कभी भी शब्दकोष में उसकी तलाश नहीं की गई
वही हरदम आगे आगे रहता है
..
वक्त बदला नहीं है
कैलेण्डर ,दिल बहलाने के लिए फडफडाता है
पिंजरे में बंद लव बर्ड्स की तरह
उसे कितना भी उडाओ नही उडती
उड़ने की कोशिश में मारी जाती है
,जिस तरह समय को ..
अभी कल ही बात है
गिने गए अठावन
जो मारे गए थे अँधेरी रात में अपने घरों से निकालकर
उनकी लाश थी
जलाया गया था
समाचार के साथ फोटो भी थे
लेकिन हत्यारा कोई नहीं
यह तो शुक्र है कि लाशों की लक्षमनपुर बाथे में गिनती हो गई
खैरलांजी में कितने मरे ?
तुम्हें नहीं पता
खैर जैसे तुम तय नहीं कर पाती हो
वैसे ही समझ नहीं पाता हूँ कि
कितना बदल गया वक्त
कितना हुआ विकास
वर्णव्यवस्था से समझ नहीं पाते अब भेद को
जैसे समझना मुश्किल होता है कि
आखिर प्यार क्या होता है
जिस वक्त तुम प्यार को परिभाषित कर लोगी
उसी दिन वर्ण व्यवस्था के मायने
समझ में आ जायेंगे
जैसे मिट्टी का रंग
हवा में घुली खुशबू
तलवे में कंकड़ की चुभन
तवे पर गर्म रोटी के पकने का अहसास
पेट के साथ मन भरने की बात ....
Friday, September 20, 2013
शब्द प्रभुनों ---कवि वामन निम्बाळकर
शब्द प्रभुनों .
शब्दों से जलते है घर ,दार ,देश और इंसान भी /
शब्द बुझाते है शब्दों से जले हुए इंसानों को /
शब्द न होते तो आँखों से गिरे न होते आग के गोले /
न बहता आंसुओं का महापुर /
आता न कोई करीब /
जाता न दूर ,,
शब्द न होते तो ...
---कवि वामन निम्बाळकर
--अनुवाद -कैलाश वानखेड़े
======================
================
========
''शब्द ''
'शब्दांनीच पेटतात घरे, दारे, देश /
आणि माणसेसुद्धा /
शब्द विझवतात आगही /
शब्दांनी पेटलेल्या माणसांची .शब्द नसते तर पडल्या नसत्या/
डोळ्यांतून आगीच्या ठिणग्या/
वाहिले नसते आसवांचे महापूर /आले नसते जवळ कुणी, /
गेले नसते दूर /
शब्द नसते तर''
- कवी वामन निंबाळकर
शब्दों से जलते है घर ,दार ,देश और इंसान भी /
शब्द बुझाते है शब्दों से जले हुए इंसानों को /
शब्द न होते तो आँखों से गिरे न होते आग के गोले /
न बहता आंसुओं का महापुर /
आता न कोई करीब /
जाता न दूर ,,
शब्द न होते तो ...
---कवि वामन निम्बाळकर
--अनुवाद -कैलाश वानखेड़े
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''शब्द ''
'शब्दांनीच पेटतात घरे, दारे, देश /
आणि माणसेसुद्धा /
शब्द विझवतात आगही /
शब्दांनी पेटलेल्या माणसांची .शब्द नसते तर पडल्या नसत्या/
डोळ्यांतून आगीच्या ठिणग्या/
वाहिले नसते आसवांचे महापूर /आले नसते जवळ कुणी, /
गेले नसते दूर /
शब्द नसते तर''
- कवी वामन निंबाळकर
Tuesday, March 12, 2013
सत्यापित
कहानी ''सत्यापित ''को सुना जा सकता है ,रेडियों की दुनिया के सरताज ,युनूस खान की आवाज में .यहाँ क्लिक कीजिये .....http://katha-paath.blogspot.in/2014/02/blog-post_9.html
-कैलाश वानखेड़े
-कैलाश वानखेड़े
अभी इंतजार में हूँ कि मेरी बारी आये और मैं अपने आपको सत्यापित करवाऊ .मुझे सत्यापित करवाना है अपना फोटो. कोई भी मेरे चेहरे को पढ़कर
अंदाज लगा सकता है कि मैं अभी परेशानी में हूँ, अब और इंतजार नहीं कर सकता. मेरे पास धैर्य था, मेरे पास समय था, मेरे पास सपने थे, मेरे पास मैं था, अब मेरे पास आवेदन पत्र पर वह फोटो है जिसे दुःख-सुख का अनुभव नहीं होता. फोटो पर पड़ने वाली सील और होने वाले हस्ताक्षर से प्रमाणित होने वाला था मेरा वजूद. सत्यापन करने वाली सील अक्सर चेहरा बिगाड़ देती है और
रही-सही कसर लम्बे चौड़े हस्ताक्षर पूरे कर देते. चेहरा पहचानना मुश्किल हो
जाता है.उसी को प्रमाणित मानते है.टहलना नहीं चाहता हूँ .थक गया हूँ बुरी तरह. भूख-प्यास मेरे दिमाग से रुखसत
हो चुकी और अब गुस्सा सवार हो रहा. गर्म लोहा, जब तक आग पर रहता लाल दिखता, आग के हटते ही काला दिखने लगता जिसने लोहे को तपते हुए नहीं देखा वह नहीं जान सकता कि अपने मूल रंग में लौटता लोहा कितना गर्म होता होगा. अपनी उम्मीद को उसी में तपाये हुए इंतजार में हूं .महू
कहानी
-कैलाश वानखेड़े
उदास दिसम्बर उसी साल का जिस साल पत्ते हरे थे
प्रज्ञा के घर जब पहली बार गया था नरेश तब उसके साथ दो दोस्त थे राहुल और संजय.किसी लड़की के घर तीन दोस्त जाते है तो अपराध बोध नही होता और लड़की के घर वालो की नजर शंकालु हिकारत से भरी हुई नही होती है , इसी ख्याल ने नरेश को दो दोस्त के साथ जाने के लिए प्रेरित किया. प्रज्ञा की मॉ, बहन व भाई से परिचय न होने के बावजूद नरेश ने नमस्कार किया लेकिन उन्होने किसी के भी जवाब में नमस्कार, नमस्ते नही कहा, बस हाथ जोड़े हल्की सी मुस्कुराहट के साथ. नरेश को लगा पूछे , कैसे है आप ? या क्या हाल है?’’इस सवाल का जवाब तयशुदा मिलता ,’’ ठीक है, मजे में है .‘’तो सुनकर लगता कि जिन्दा है लोग.छोटे से शब्द ’जिन्दा’ होने का प्रमाण देते तो सुकून मिलता, लेकिन न जाने क्यो नरेश की हिम्मत ही नहीं हुई,सवाल करने की .अचानक चेहरा उतर गया, पकड़ा गया हो कि खामोशी के चंद लम्हों में प्रज्ञा की बहन-भाई भीतर चले गये थे . प्रज्ञा की मां ने पूछा था ,’’कैसे हो बेटा ?’’
Sunday, January 20, 2013
कविता -तुम इतनी मासूम लगी मुझे कि तुम्हारे भीतर बुद्ध दिखते है
तुम इतनी मासूम लगी मुझे कि तुम्हारे भीतर बुद्ध दिखते है--- कैलाश वानखेड़े
पीर बाबा की मजार पर दुआओं की कतार में भेड़ बनने की बजाय तुम घूमती रही
आकर्षक नकली जेवर लुभा न सकें तुम्हें
बंद स्कूल में गुलाबी कपड़ों में खेला गया आखरी दिन की यादें
सहेली ,वह टीचर जिसे कर्फ्यू के बाद आना था ..
किसकी तलाश में गई थी गुल मकई,पीर बाबा की मजार पर ?
Saturday, January 19, 2013
कहाँ जाओगी ,दुर्गा ... कविता
---- कैलाश वानखेड़े
जल रही है आँख अभी जबकि पढ़ नहीं पाया पूरा अखबार
कि फेसबुक के सारे अपडेट पढ़ देख नहीं पाया
बस दिखी तस्वीर दुर्गा की
संदीप की वाल से उदय प्रकाश की कविता तक आते आते मेरी आँखों में
धुंधलका आ गया
इनकार कर रहा है कोई भीतर से
चल गोली खा और सो जा .
जल रही है आँख अभी जबकि पढ़ नहीं पाया पूरा अखबार
कि फेसबुक के सारे अपडेट पढ़ देख नहीं पाया
बस दिखी तस्वीर दुर्गा की
संदीप की वाल से उदय प्रकाश की कविता तक आते आते मेरी आँखों में
धुंधलका आ गया
इनकार कर रहा है कोई भीतर से
चल गोली खा और सो जा .
Friday, January 18, 2013
तुम लोग
- कैलाश वानखेड़े
घर के भीतर चूल्हे
के अंदर कसमसाती है आग. कागज पर सवार होकर आग गीली लकड़ियों के उपर चढ़ती है और दम तोड़ने
लगती है. कागज जलाने से पहले पढ़ती है उन पर लिखी हुई इबारत को. उनमें लिखे हुए इतिहास
को कि पोथी-पुराण ही जले, तभी कागज
खत्म हो जाते है. गीली लकड़िया
मुहं छिपाकर हंसती है कि कर ले जितना जतन करना हो, हम इन झूठो से राख नही होने वाले है. आग में इन्हें ही भसम हो
जाना है कि तभी उठाती है
घासलेट, रत्नप्रभा.मैं एकटक
देखता ही रहा रत्नप्रभा को कि कागज पढ-पढकर छांटने के बाद अब क्या करने वाली है. धुएं
की हलकी परत में लालपन उसकी सफेद आंखों के भीतर छा गया है . फूंक मारते-मारते थक गई
है कि अब आखरी रास्ता बस घासलेट है. आग बनाने वाली लडकियां जानती है, इस रास्ते को.वह घासलेट का पाँच लीटर का
केन उठाती है. कबाड़ी की दुकान से दस रुपये में खरीदा हुआ ये सनफ्लावर तेल का डिब्बा, घासलेट का बसेरा बना हुआ है. गीली लकड़ियों
के उपर डालती है घासलेट. घासलेट की बूंदों की गिनती मैनें बीवी के मुंह से सुनी. जब
मैं मटके से पानी निकालकर पी रहा हूं तब, यह ग्यारहवीं
बूंद थी और रत्नप्रभा की जबान ने कहा, ओह !
Wednesday, January 16, 2013
हाँ मै दलित हूँ
मेरे माथे पर नहीं लिखा है
लेकिन मेरा चेहरा बोलता है
बोलते है घुसर फुसुर करते हुए
सैकड़ों मुहँ धारी
पढ़ लेते है कागजात
पता लगा लेते है इधर-उधर से.
जब मालूम न पड़े तो
पूछ लेते है
मराठा हो
बामन ..
रुकता है
बुलवाने के लिए मेरे मुहँ से मेरी जाति
क्या है आप ..
लेकिन मेरा चेहरा बोलता है
बोलते है घुसर फुसुर करते हुए
सैकड़ों मुहँ धारी
पढ़ लेते है कागजात
पता लगा लेते है इधर-उधर से.
जब मालूम न पड़े तो
पूछ लेते है
मराठा हो
बामन ..
रुकता है
बुलवाने के लिए मेरे मुहँ से मेरी जाति
क्या है आप ..
Tuesday, January 15, 2013
किती बुश आणि कितेक मनु(मराठी अनुवाद )
दिवस मावळतीला गेला आणि नेमका मूड खराब असला की बी. डी. ओ. साहेबांच बोलावणं आलाच समजा. कर्मचारीही मग त्याची वाटच पाहत असतात पण बोलावणं आलं की लगेच जाणार, असं थोडाच असतं. जाणून-बुजून उशिरा जाण्यात त्यांना मजा येते,खूप बरं वाटतं त्यांना की काही क्षण बी डी ओ मनातल्यामनात कुढत राहावेत. खूपच त्रास दिला सल्याने ! लवकर गेलो नाही म्हणून हजार गोष्टी ऐकवतो,ओरडतो. तर आता घे बेट्या ! असा विचार करूनच ते प्रवेश करतात. त्यांना माहित आहे की सगळेच बी. डी. ओ. पहिल्यांदा सरकारला शिव्या घालतात. म्हणून आपलं काय जातं? सरकारचं जातं ! शर्मा बाबून बसण्यापूर्वीच म्हटलं ह्या देशाची सिस्टम खूपच खराब आहे साली.
समजतच नाहीत आदेश. आता हेच पहा .....fax आलेला कागद पुढे करतात "वर बसलेल्या मादर.......नां अक्कल नावाची चीजच नाही. जसं बाबू म्हणेल त्यावर कोंबडा उमटवला म्हणजे झालं. ह्या वरच्या साहेबानं तर कहरच केलेला आहे. माहित नाही काय होईल ह्या देशाच?" बी डी ओ fax वाचत-वाचत बोलला .
Monday, January 14, 2013
तू इतकी निरागस वाटलीस की तुझ्यात बुद्ध दिसले मला..
पीर बाबाच्या मजारीवर ,दुव्यांच्या रांगानं मधे , मेंढरू बनण्या पेक्षा तू फिरत राहिलीस
सुंदर नकली दागिने आकर्षित करू शकले नाही तुला
बंद शाळत गुलाबी कपड्यां मधे खेळल्या गेलेल्या शेवटच्या दिवसाच्या आठवणी
कुणाच्या शोधात गेली गुल मकई पीर बाबाच्या मजारी वर ?
खरं -खरं सांग कि काय आपल्या शालेवर तालिबान वार करेल ?
Saturday, January 12, 2013
कविता : लाठी
बहुत ही अजीबोगरीब सपने देखता हू
उसी तरह नहीं सोचता हूँ
दिमाग के भीतर किल ठोंक दी है हुक्मरान ने
किल के गले में तानकर स्प्रिंगनुमा तार अटका दिया है
उसपर लगातार डाला जा रहा है कुछ तो भी
जबकि उसी स्प्रिंगनुमा तार की जरुरत है माँ को ताकि
दरवाजे के दोनों सिरों पर उसे खीचकर
डाल सके पर्देनुमा कपडा लेकिन ये हो न सका तो
सफ़ेद नाड़े को जिम्मेदारी सौंप दी गई कि वह पर्देनुमा कपड़े को उठाकर खड़ा रहे
उसी तरह नहीं सोचता हूँ
दिमाग के भीतर किल ठोंक दी है हुक्मरान ने
किल के गले में तानकर स्प्रिंगनुमा तार अटका दिया है
उसपर लगातार डाला जा रहा है कुछ तो भी
जबकि उसी स्प्रिंगनुमा तार की जरुरत है माँ को ताकि
दरवाजे के दोनों सिरों पर उसे खीचकर
डाल सके पर्देनुमा कपडा लेकिन ये हो न सका तो
सफ़ेद नाड़े को जिम्मेदारी सौंप दी गई कि वह पर्देनुमा कपड़े को उठाकर खड़ा रहे
Thursday, January 10, 2013
खापा
कहानी : कैलाश वानखेड़े
सभीको दिखती है दूर से अमराई.गांव वाले हो या शहर के बाशिन्दे किसी से भी पूछा जाये तो वह इसे शहर की सीमा से बाहर बतायेगा लेकिन अमराई शहर की सीमा के भीतर है. मोटी किताबों के रखवाले कहते है,लोगों का क्या है? उन्हें कुछ आता जाता नहीं इसलिए उन्हें मालूम नहीं.मालूम नहीं ,इस बात को इतनी बार बोला-लिखा गया कि मालूम नहीं .अमराई के पास आने के बाद दूर-दूर तक विरान जमीन दिखती है जिसे खेत कहा जाता है.विरान खेतों को खरीद लिया गया है, खरीदी हुई विरान होती है.खेत विरान करने के बाद कॉलोनी आबाद होती है.अमराई से लगा सडक के पास खडा दिखता है आम का ठेला, ठेलें के साथ होता है एक बुढा.जब नहीं दिखता बुढा तो दिखतीहै बुढिया तब होती है साथ में एक लडकी आठ-दस साल की, जो बकरियों के साथखेलती दिखती है.दिखतें है ढेर सारे आम के अलावा जामुन से आधी भरी टोकरी.खाली हिस्से के जामुन को जामुनों का शिखर बनाने के लिए जमाये है, एक के उपर ताकि दिखे दूर से ही कि ये जामुन है.शिखर दिखाने के लिए ही बनाये जाते है .जामुन पहचान ले, और जबान खराब होने के डर को छोडकर खरीद ले. यहॉ जामुन के पेड़ नहीं है. पेड़ है आम के, हर पेड़ पर आम.अमराई की तरह होता होगा प्राइवेट स्कूल जहाँ घनी ठंडी छाया तले खूब खेलने -पढने के बाद पेड़ पर चढ़कर आम जामुन खाने को मिलता होगा.समर के दिमाग में स्कूल के साथ साथ आम चला आया .
Wednesday, January 2, 2013
सावित्री-जिजाऊ जन्मोत्सव {3जनवरी से 12जनवरी }
सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन से जिजाऊ माता (शिवाजी महाराज की मां )के
जन्मदिन तक दस दिवसीय जन्मोत्सव का आयोजन किया जाता है . नारे लगाते हुए
,नुक्कड़ नाटक के माध्यम से जोर शोर से कार्यक्रम की शुरुआत अपने अपने तरीके
से की जाती है .बोरखेडी व मोताला{बुलडाना } में विगत पन्द्रह वर्ष से
जन्मोत्सव का आयोजन लेखिका ,कवयित्री व प्राचार्य के नेतृत्व में किया
जाता है .इस बार का आयोजान दामिनी को समर्पित किया गया है .दामिनी की
जीवटता ,जीने के भरपूर हौसले और बलात्कारियों से जी-जान से लड़ने के जज्बे
को स्त्री ताकत का प्रतीक माना गया .वह मरते दम तक जीना चाहती थी ,उस चाहत
को सलाम .सावित्रीबाई ने पढ़ना लिखना सिखा और लड़कियों की पहली शाला खुलवाने में पति की सहयोगी बनकर पहली महिला शिक्षिका बनी .
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झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड
जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...
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कहानी ''सत्यापित ''को सुना जा सकता है ,रेडियों की दुनिया के सरताज ,युनूस खान की आवाज में .यहाँ क्लिक कीजिये ..... http:...
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मेरे माथे पर नहीं लिखा है लेकिन मेरा चेहरा बोलता है बोलते है घुसर फुसुर करते हुए सैकड़ों मुहँ धारी पढ़ लेते है कागजात पता लगा लेते है ...
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शब्द प्रभुनों . शब्दों से जलते है घर ,दार ,देश और इंसान भी / शब्द बुझाते है शब्दों से जले हुए इंसानों को / शब्द न होते तो आँखों से ग...
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