Saturday, September 21, 2019

हल्केराम


                    किसी का मजाक नही उड़ाना चाहिए.'' उसने बात काटते हुए इस विनम्रता से कहा कि उसकी ओर विशाल देखता ही रह गया. इस आदमी की छोटी छोटी सी आँखे है. आखों में गीलापन,चेहरे पर तरलता से भरी हुई नदी, ठहरी हुई लगती है. और वह विनम्रता से भरा हुआ है.बोलते हुए उसका अंदाज ऐसे लगा कि आप जो चाहे वो सजा दे लेकिन इस तरह से बोलना ठीक नही है. कुछ भी हो लेकिन किसी के सरनेम,नाम की चीरफाड़ नही करना चाहिए.
विशाल उसे एकटक देखता रहा कि वो कौन सी बात हुई जो इस आदमी को  नागवार लगी कि उसने ये फैसला सुनाया. विशाल को समझ नही आ रहा था.वक्त निकल गया लेकिन इसे कौन सी बात चुभी?जब यह पता नही चल पाया तो उसने वक्त को बातों के साथ वापस किया.
रूप रंग आकार से लगता है, वो झोपडी है जो दरिद्रता से भरी हुई है.लेकिन वह एक दुकान है. सडक पर चलने वाले को पता नही चल सकता है कि वो दूकान है. जो पहले से जानता है, वही जान सकता है कि यह दूकान है. इसका कोई दरवाजा नही है. सडक से सीधे बरांडे में पहुँच सकते है.झोपडी अर्थात दूकान के भीतर जाते ही दो खटिया रखी हुई दिखती है. आधी दीवार प्लेटफार्म बन गई. उस पर बिक्री योग्य सामान रखा हुआ है.थोड़ा सा आगे बढे तो चूल्हा जल रहा है. लकड़ियाँ अनमने ढंग से जल रही थी. कोई आगे तो कोई बीच में किसी को चूल्हे के मुहाने पर रखा हुआ है. लकड़ियाँ लम्बी है. उम्र के आखरी पड़ाव वाली कोई बुजुर्ग हो जैसे. गौर से देखने पर पता चलता है कि लकड़ियाँ रखनेवाले ने बेहद संजीदगी से योजनाबद्ध रूप से चूल्हें में डाल रखी है. किसे कितना जलना है और किसे गर्म होना है, यह तयशुदा है. लोहे की मोटी काली कढाई में उबलता हुआ तेल इंतजार में है. तेल में जो डाला जा रहा है, वो क्या हो सकता है? विशाल यह जान नही पाया. तलने वाले आदमी के पास एक बड़ी थाली में बहुत सारे समोसे रखे हुए है. समोसे से छोटे आकार का क्या हो सकता है? विशाल ने पूछना चाहा और नजर चारों तरफ घुमाई ताकि कोई पहचान का सिरा मिले. नजर उठाते ही भजिये दिखे. सवाल की बजाय मुह में पानी आया. पीले रंग में झांकती हुई हरी मिर्च ने उसकी जबान गीली कर दी. गीलापन इतना कि होंठों पर उसकी एक परत चढ़ानी पड़ी.तराजू नही है. फटे हुए अखबार के पास जलेबी है. भरी दोपहर में जलेबी? जब समझ नही पाया तो इधर उधर देखने के बाद कढाई पर नजर टिकी. हार मानकर विशाल ने तलनेवाले आदमी से पूछ लिया, ये क्या तल रहे हो?’’
तलनेवाले की निगाह कढाई में उन्हें पलटने में लगी हुई है. तलता हुआ एक अटक रहा था,उसे ठीक करते हुए वो आदमी बोला, ''गुझीया. मीठी ...'' वो विशाल की अज्ञानता जान चुका था. डिटेल बताते बताते अचानक रुका.जैसे वो जान गया कि वो इस आदमी को भी जान गया है.कोई एक नाम किसी को परिभाषित करता है.और गुझिया के मायने विशाल जान चुका है. तलनेवाले जानते है,बाहरी आवरण को तल दो तो भीतर का पकता है.आवरण से पता चल जाता है कि कच्चा है या नही.विशाल ने उसके चेहरे को देखा और चुप हो गया. मान लिया गया कि अब इस उबलते तेल में जो झाग है,जिसके कारण गुझिया की पहचान मुश्किल थी.बोलने के बाद साफ़ हो गई तो उसने कहा, स्वेटर क्यों पहन रखा है?’’
सवाल अनपेक्षित था. भजिये समोसे गुझिया,गुटके की दुकान में अखाद्य सवालों बीच में स्वेटर का सवाल करने के बाद विशाल को खुद अटपटा लगा. उसे भी लगा. वह बोला नही. उसने सवाल को तल दिया. पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ चुके थे. जोड़तोड़ की सरकारों की बात फटे हुए अखबार में नही थी.उसने स्वेटर सवाल,गठजोड़ सरकार पर ध्यान देने की बजाय कल रात की बारिश में गेंहू की फसल के नुकसान को याद किया. अध मार्च की बारिश ने मौसम को बिगाड़ दिया. मौसम आदमी की तबियत बिगाड़ देगा. समाचार सवाल का क्या है?आते जाते रहते है जबकि इस मौसम के खिलाफ यह स्वेटर था. विशाल के दिमाग में इसकी बजाय यह बात आग की लपट बन गई कि आग के करीब होते हुए स्वेटर क्यों पहना?सवालिए को समझ नही आ रहा कि क्या लाल आग का भरोसा नही रहा?
विशाल ने उसे देखा, उसमें आग नही दिखी. चुप्पी, घुन्नेपन की तरफ धकेल रही है. उसकी खामोशी को कोई नही सुन पा रहा है. और वो तेल में गुझीया को आगे पीछे कर रहा है ताकि कोई अधपकी न रहे. उसकी उम्र पकी हुई है. सिर से बाल गायब है. चेहरे पर झुर्रिया सवार है. तोंद ने अपना स्वतंत्र अस्त्तिव ग्रहण कर लिया. उसकी कुर्सी का बीच वाला हिस्सा टूटा हुआ है. उस पर गोदड़ी डली हुई है. उस गोदड़ी पर धुएं के साथ तेल की चिपचिपाहट है.
''समोसे गरम है?’’ विशाल के पूछने पर उसने हाँ कहते हुए मुंडी हिलाई. उसने बातचीत की संभावना समाप्त की. लेकिन विशाल ने सवाल जारी रखा, ''कितना बिक जाता है?'' उसने कुछ नही कहा. और अब वो बोलेगा नही, महिला यह जानती होगी इसलिए उस महिला ने कहा, कोई हिसाब नही. कब कितना बिके? कभी बिके कभी नी बीके.''जब सब चुप हो जाए या बोलने में अटकने लगे तो किसी को जरुर बोलना चाहिए,यह बात वो महिला समझती है,जो दूकान चला रही है.जब सब तरफ खामोशी हो जाए तब बोलना और बताना चाहिए,यह उसकी आँखों से झलकने लगा.
''तो भी कितने का धंधा हो जाता है?''
''अब तेल ही देखो. बाजार में अस्सी चौरासी का मिले. खुल्ले में और बेसन..'' तभी एक ग्राहक को गुटके का पाउच बेचा और रूपये वापस करने में वो लग गई. तेल के दाम से तय है कि यह मिलावटी है. वर्ना बाजार में डेढ़ सौ से ज्यादा भाव वाला तेल है.
''कितने का है गुटका?'' सुनकर वो महिला मुस्कुराई और बोली, पांच. विशाल को लगा वो उनका भरोसा हासिल नही कर सका. या उन्हें सवाल नासमझी से भरे लग रहे. विशाल गंभीर है. वास्तविक रूप से जानना चाह रहा है. तभी भजिये ने सवालिए का ध्यान अपनी और खींचते हुए इस द्वंद से बाहर निकाला. विशाल बोला,ये भजिये क्या हिसाब से बेचते हो?’’
''पांच के पचास ग्राम.''
'' और कचोरी?''
‘’पांच की एक .’’
‘’मतलब कुछ भी लो. सबके दाम एक जैसे...ये तो अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा, वाली बात हो गई.'' इस बात पर वो पुरुष हंसा नही.विशाल मुस्कुराया और महिला मुस्कुराई. उसकी हंसी उसके चेहरे के साथ आँखों में चमक रही थी कि लगा बता रही कि उस उम्रदराज लगने वाले आदमी की उम्र उतनी नही है जितने का अंदाजा लगाया था लेकिन वो उस उम्र की मोड़ से जा चुका है.हाल फिलहाल चुप है.उस वक्त उस महिला ने लकड़ी की पतली लम्बी डंडी निकाली.कढाई की झाग में से गुझिया को डंडी से पलटने लग गई.जैसे उसे पता हो कि कौन सी गुझिया पक नही रही.किसे पलटाना है किसे जलने से पहले बाहर निकालना है.वो जानती है किस को उसकी जरूरत है.
.................दरअसल इसी मोड़ पर उस तलने वाले से विशाल ने पूछा था आपका नाम क्या है और देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा था,''चिरोंजीलाल.''विशाल का मोबाइल बजा और उसने हलो हलो शब्द कई बार बोला. उसको उधर से आवाज नही आ रही थी.कनेक्ट होने के बावजूद सुन नही पा रहा था कि उस हलो हलो में चिरोंजी का नाम सुन नही पाया. नाम सुन लेता या इस वक्त विशाल अगर उस महिला से बात करता तो बात आगे बढ़ सकती थी.उस महिला से बोलने की बजाय उस आदमी से बात करने लगा जिसने अपना सारा ध्यान तेल में लगा रखा था.एक बेमतलब का सवाल किस तरह से बातचीत को असहज बना देता है,यह दिखने लगा था.
''चिरोंजी का मतलब क्या होता है?'' बेहद संजीदगी से जानने और बातचीत का सिलसिला शुरू करने की गरज से विशाल कुछ कहने ही वाला था कि उसके साथी ने फिर पूछा था. चिरोंजीलाल ने जवाब नही दिया. सारी गुझीया कढाई में डल चुकी थी और जो पहले वाली थी, उनकी जगह पर नई वाली आये, इसी उपक्रम में चिरोंजीलाल लगे हुए थे. तभी उसी खाली वक्त को उस तीसरे ने हथिया लिया था जिसकी खिचड़ी दाढ़ी है. वो बोला,'' सरदार चिरोंजी .'' और वो बोलते बोलते जोर से हंसा. विशाल के मोबाइल की घंटी बजी तो विशाल ने मोबाइल कान से लगाया ठीक उसी वक्त चुप बैठा विशाल का साथी बोला, ''बोलो चिरोंजी,क्या अर्थ है? सरदार और चिरोंजी? क्या घालमेल है.’’उस आदमी ने जवाब नही दिया न ही देखा तब फिर बोला विशाल का साथी,’सरदार हो नही चिरोंजी लगते नही हो.मामला बड़ा गडबड है.’’वो हँसा लेकिन कोई भी नही हँस सका. विशाल मोबाइल लेकर इधर उधर चलने लगा कि मोबाइल चले.विशाल और चिरोंजीलाल के बीच टूट चुके संवाद के इस वक्त में जिसने हस्तक्षेप किया था, वो विशाल की तरफ देखता हुआ बोला, ‘’किसी का मजाक नही उड़ाना चाहिए.''
........ खामोशी उस माहौल में जिज्ञासा से तनाव का आकार लेनी लगी. विशाल को लगा उसने ऐसा क्या कहा? आवाज या अंदाज क्या ऐसा था? इन दोनों सवालों के जवाब में उसे कुछ नही मिला. नि:शब्द हो गया कि इस दुबले पतले आदमी ने ऐसा क्यों कहा.दरअसल विशाल उस वक्त मोबाइल में था जब उसके सहयोगी ने हंसी ताने के साथ कहा था.
विरोध करने वाले उस आदमी की आँखों के भीतर कई जाले जैसी चीजें दिखने लगी. आंख के आसपास का मांस सिकुड़ने लगा है. उसकी उंचाई पांच फिट से बहुत कम है. उसे अहसास हुआ कि जो सवाल उसने दागा है, उसका नतीजा है खामोशी तो उसने कहा, गलत बोला?''
'नही.कहाँ रहते हो?’’विशाल ने बिना जाने समझे तपाक से कहा.
''यही.'' उसने हाथ ऊँचाकर गाँव की तरफ देखते हुए कहा. जैसे कुछ घरों के उप्पर से छलांग लगाते हुए बताना चाहता हो. वो चाहता है कि उसका हाथ डंडाकार हो जाए. जब नही हुआ तो हथेली को जमीन की तरफ किया.
''किस गाँव के हो?''
''इसी.'' और विशाल को इस गाँव का नाम नही मालूम. किसी जगह लिखा हुआ नही है,गाँव का नाम. गाँव बोले तो गाँव. उसका कोई भी नाम हो, कोई फरक नही पड़ता. नाम की बात को छोड़कर कहा, ''क्या करते हो?''
''जो काम मिल जाय. और कोई काम है कि मिलता नही.'' वो हंसा.वो हंसना चाहता था. इस चाह में उसकी हंसी उसका साथ नही दे रही थी.विशाल हंसे तो शायद उस आदमी की हंसी का सिलसिला शुरू हो लेकिन उसके पास हंसी नही थी. उसके पास की कुल जमा बची हुई हंसी खर्च हो गई और हासिल कुछ नही हुआ तो उसे अपने अकेले होने का अहसास अपराध के साथ हुआ. तभी वो खिचड़ी दाढ़ी वाला बोल पड़ा, कछु न कछु काम मिल जाए.'' विशाल ने उसे अनसुना करना चाहा. उसकी उम्र उन दोनों से ज्यादा है. तभी उस हंसी वाले दुबले पतले ने कहा, कोई मेरे बच्चों का एडमिशन करा दो. वो मास्टर कहता है पहले टीसी लाओं. अब कहाँ से लाऊं?’’अपराध बोध के सन्दूक से अचानक एक अलग सा सवाल निकला.
''कही बाहर गए थे क्या?''विशाल को उससे बात करने का मन हुआ इसलिए संजीदगी से बोला.
''कोटा. पत्थर काटने. तीन साल हो गए. अब वापस आ गया हु. कोटा में स्कूल जा नही पाते बच्चे. बात तो यह है कोटा में पढ़ा न सका न यहाँ.'' वो रुक गया. विशाल चुप था कि ये डिटेल बताये. फिर वो बोला, ''उस मास्टर से बोला मैने कि मेरे बच्चों को एडमिशन नही दे रहा तो मत दे लेकिन बैठने तो दे. दो चार अक्षर पढ़ लेंगे. वो मास्टर फिर भी नही मानता.बैठने भी नही देता है. बोलता हो पेले टीसी ला.वो स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र.अरे जब स्कुल से सर्टिफिकेट मिला ही नही तो कहाँ से लाऊ?''
‘’ और कोटा में एडमिशन क्यों नही दिया था?’’
‘’ इस गाँव का स्कुल छोड़ा तो स्कुल ने टीसी दी नही थी.स्कुल वाले तब तो बड़े प्यार से टालते समझाते रहे.मास्टर बोलता रहा टीसी दे दूंगा तो मेरी नौकरी जायेगी.सवाल जवाब होंगे.बच्चा स्कूल छोडकर क्यों गया? मास्टर ऐसा भोत कुछ बोलता गया तो मैं चुप हो गया था.उधर कोटा वाले सफा बोले पहले टीसी लाओं रिजल्ट बताओं और तो और रहने का प्रूफ भी बना ही नही था तो कोटा में एडमिशन मिला नही. वहां चुप बैठ गए थे.पराए वतन में किस किससे लदे बोले.समझ ही नी न आये जो कागज हमारे पास है ही नही तो कहाँ से लाकर दे?टीस्स्सी? उसकी बातों से पता चला कि इस गाँव से कोटा आधे घंटे में पहुँच सकते है लेकिन एडमिशन के लिए आधी उम्र लग जायेगी.प्रदेश की सीमा बदल जाने से इंसान की पहचान खो जाती है.गुम पहचान की तलाश में थका हुआ आदमी बोल रहा है.अपने गाँव में हमें सब पहचानते तो है लेकिन हम रिकार्ड से बाहर हो गये.उसके बोलने से विशाल को लगा और बोला जा सकता है.उसे मुद्दा समझ नही आया तो फिर बोला,''कोटा जाने से पहले कहाँ पढ़ते थे?'' विशाल समझना चाह रहा है कि अगर यही पढता था तो फिर टीसी की जरूरत क्या है? पहले नही दी तो अब क्यों मांग रहे है?
''जेहि.इसी स्कुल में.'' यहाँ से स्कुल नही दिख रहा है लेकिन यह पक्का है इसी गाँव के स्कुल की बात कर रहा है.उसका गुस्सा आकार ले रहा था. आवाज तल्ख होती जा रही है और विशाल के दिमाग में उस मास्टर का नियम खिलाफ जाने की वजह जानने का मन हुआ. लेकिन पता नही चल पा रहा है. मास्टर को ऐसा नही करना चाहिए, गैप होने के बाद उम्र के हिसाब से एडमिशन दे सकते है,नही दे रहे है.क्या कारण हो सकता है?सोचा तभी खिचड़ी दाढ़ी वाले ने कहा, ''कहाँ से आये बाबूजी?'' विशाल ने उससे कहा, ''बताता हूँ.अभी आप रहने दो. इनको बताने दो.'' उस दाढ़ी वाले आदमी ने अपने चेहरे को दोनों हाथों से ढंका और घुटने में सर धंसा दिया.उसकी ओर देखे बिना बात का सिलसिला बरकरार रखते हुए विशाल ने कहा, ''ये बताओं आपका नाम क्या है?''
''हल्केराम.'' हल्केराम ने अपना नाम बताया.चुप हो गया.विशाल राजगढ़ से जाने के लिए तूफ़ान गाडी में से उतरा था.जो यात्रियों को ढोने के काम आती है.तूफ़ान का पहिया पंचर हो गया था और स्टेफनी नही होने से पंचर बनवाना जरूरी होने से वे रुक गए थे.यहाँ सडक से दूर एक पक्के मकान की दीवार पर लिखा हुआ है,’’ यहाँ पर पन्चार जोड़ी जाती हाँ ‘’ इसके नीचे एक खिड़की है.जिसके नीचे गेरू से लिखा हुआ है,172 30-1-20-17
   इसका मतलब था कि पोलियों की दो बूंद इस घर के भीतर बच्चे को पिलाई गई है.घर बंद है.जिसकी दिवार पर पंचर और है का रूप बदल गया कि शब्द पोलियोग्रस्त हो गए.यहाँ बिजली नही होने से हवा भरने की मशीन बंद है और इसलिए इस झोपडी उर्फ़ दूकान में वक्त बिताया जा रहा है.विशाल संविदा पर सरकारी नौकरी कर चुका है और फिलहाल एक एनजीओ में काम कर रहा है.एक अनमने सफर के इस पड़ाव में वो क्या बताये कहाँ से आया?क्या करता है? विशाल को यह बताना गैर जरूरी लगा तभी हल्केराम अचानक से बोला,’’ मेरी जिन्दगी तो बेकार हो गई.''पहचान की मांग का दर्द था या किसी अँधेरी सुरंग की यात्रा की निराशा कि लगा वो टूटा हुआ है.
‘’क्यों?’’
‘’बच्चों को पढ़ा नही सकता.वोटर लिस्ट में नाम नही है तो चुनाव में वोट दे नही सकता.राशन की दुकान से गेंहूँ चावल नही खरीद सकता.मजूरी कर नही सकता...पता नही क्या क्या नही कर सकता.इसीलिए तो कहता हूँ ....सच कहता हूँ जिन्दगी बेकार हो गई है.
''किसने कहा?'' दिमाग में उसकी बीवी थी. बाप था.मास्टर था.ग्राम पंचायत का सचिव सरपंच था.कौन था वो जिसने उसे बताया कि उसकी जिन्दगी बेकार हो गई?क्या उसने खुद को बताया? विशाल उसे गौर से देखने लगा.विशाल अपने बारें में सोचने लगा.
''मुझे पता है. कोई नी बोला.कोई नही बोलेगा. मालूम है मैं बेकार हूँ. कमसकम मेरे बच्चे तो पढ़े लिखे.''
''अभी तो बहुत है जिन्दगी. बेकार नही गई.''
''चली गई. अब कुछ नही बचा. कुछ भी नही.'' हल्केराम  को कोई कंधा मिलता तो वो नदी बहा देता.
''कितनी उम्र है?''
''चालीस.''
''आपको किसी ने ऐसा बोला क्या?''
''पता है मुझे.बेकार..'' उसने गर्दन हिलाई कि लटक गई पता ही नही चला. वो इस दूकान या झोपडी के मुहाने पर बैठ गया. उसे लगा लड़खड़ा गया तो गिर जाएगा.वो बैठ गया.हवा ठंडी हो गई थी.उसके चेहरे पर सवार थी.
विशाल के भीतर उदासी लडखडाते हुए आई. विशाल को भी लगा जिन्दगी बेकार चली गई. उसके पास अब कुछ नही था कि उसे सहारा देने वाली बात कर सकें. कई नौकरी कई शहर छोड़ा हुआ आदमी चुप हो गया.शब्द से बेरोजगार विशाल झोपडी देखने लगा.जब झोपडी बनाई होगी तब बनाते वक्त रहने का सपना था या दुकानदारी करने का इरादा? विशाल की पूछने की हिम्मत नही हुई.अपने आपसे बात करते हुए लगा कि वो किसी टीवी चैनल का एंकर बन गया है.जिसका उद्देश्य बेमतलब के वाक्यों से वक्त का पेट भरकर फैलाना होता है.समाचार के नाम पर फ़ालतू बातों को पालतू बनाने की होड़ में निरर्थक बात बहस हो जाती है इसलिए उस स्वेटर वाले ने एक बार भी कुछ नही बोला.वो अपने काम में डूब गया या फिर गर्म तेल की कढाई में खुद को उबाल रहा है?उसने अपने मन के अपनी जुबान के सारे रास्ते बंद कर दिए.उससे दूसरी बार बात शुरू करने के लिए विशाल के पास शब्द नही है इसलिए उसने दूकान के आखरी हिस्से पर नजर घुमाई. वहां कढाई में से गुझिया निकाल कर वो स्वेटर वाला चाशनी में डूबा रहा था. चाशनी में लाल रंग था. लाल रंग की जलेबी है. उसी में इसे डूबाया. कुछ लोगों ने समोसे खरीदने शुरू किये. विशाल का मन भजिये खाने का हो रहा है लेकिन पेट इंकार कर रहा है. तभी साथ वाले बुजुर्ग जैसे आदमी ने कहा, ''समोसे गरमा गरम अच्छे लगते है.ठंडे होने पर मजा नही आता.'' इस बात ने विशाल की उदासी कम नही की. उसने फिर हल्केराम से कहा, ''कोटा में कितनी मजदूरी मिलती थी?’’
''ढाई सौ रोज.''
''घरवाली को?''
''दो सौ.''
''कोटा से वापस गाँव क्यों आये?''विशाल को लगा वो खुद से कहना चाह रहा है क्यों नही लौट जाता अपने शहर.
''काम बने नी. पत्थर टूटे नी. पीपी के कितना काम करे?''
''आज पी है?'' एक हल्की से मुस्कुराहट के साथ अपनत्व से भर गया था विशाल का मन और इसी वजह से हल्केराम ने बेहद सहजता से कहा,''हाँ.''हल्केराम बारीक़ लकड़ियों को तीन चार इंच की साइज में तोडकर जमीन में गाड़ते हुए बोलता जा रहा है.
''कितने की?''विशाल की मुस्कुराहट में जिज्ञासा थी.
''बीस की. आपसे क्या छिपाना.''हल्केराम खुल गया.विशाल की उदासी ले गया.एकदम हल्का महसूस किया विशाल ने.इतना भरोसा जताना विशाल को निहाल कर दिया.उसी रो में उसने कहा,''बड़ी सस्ती है. बीस में कितनी मिलती है?''
''सौ ग्राम जितनी.बंजारे बनाते है. कच्ची...''
''ये तो कम है?''हँसते हुए विशाल ने कहा.
''भोत है. ज्यादा की पी लूँगा तो चूल्हा हड़ताल कर देगा. कामकाज ठप्प हो जाएगा.सब देखभाल करके सोच समजके पीना पड़ता है. रोज रोज नही पीता.इतनी औकात नही अपनी.जब ज्यादा गम हो तब मार लेता हूँ ...'' वो नजरें मिलाने के बाद जमीन की तरफ देखने लगा.उसके बोले हुए औकात और गम ने उसे और विशाल को हिला दिया.वो चंद पल पहले हंसी में बात हो रही थी वो वापस अटक गई.जैसे जिन्दगी हो गई.चुप्पी कब आई पता ही नही चला.तो उस समय वो खिचड़ी दाढ़ी वाला फिर बीच में बोला,''इतना मत बोलकर हलके और हलका हो जाएगा.''
''बोलने दो.'' विशाल ने खिचड़ी दाढ़ी वाले से कहा.उसका यूँ बीच में बोलना विशाल को खटक रहा है.उसने हल्केराम के शरीर को देखा.वो बेहद दुबला पतला है.उसकी शारीरिक हालत बता रही है कि वो बीमार है.कुपोषित है.गमजदा है.उस दाढ़ी वाले का अंदाज बता रहा था कि उसने ज्यादा पी रखी है और खुद को संभाल नही पा रहा है जबकि हल्केराम ने या तो कम पी है या उतर रही है. वो संयत है.सब चुप है. चाशनी से निकालकर गुझिया अब उस मिट्टी के प्लेटफार्म पर रख दी गई है. इस दौरान गुटका ही बिक रहे है. कचोरी , भजिये, जलेबी को किसी ने नही खरीदा है. सब एक भाव होने के बावजूद.कई ग्राहक आये और गुटका ले गये.
''बेकार होके जिन्दगी खतम हो गई. खतम. अपना तो सब कुछ खतम हो गया अब. अब बस लगता है बच्चों के लिए कुछ करूँ लेकिन कुछ नही कर पाया तो खुद मर जाऊँगा या बच्चों को खतम कर दूंगा.'' उसकी आँख में पानी नही रुक रहा है. हल्केराम से विशाल ने कहा, ''अभी तो तुम्हारी उमर चालीस है.बहुत बाकी है जिन्दगी.’’
विशाल को यकीन हुआ कि उसे इस बात पर यकीन नही हुआ. विशाल को अपनी बाकी बची हुई जिन्दगी पर भरोसा नही है. कब मर जाऊ?पता नही.फिर ये तो थक गया है अपने तन से और बचा नही है मन.क्या कहूँ?नही जानता. कुछ नही बोलता विशाल और चुप हो जाता है कि गुटका बेचने वाली कुछ बोलना चाहती है लेकिन बोल नही पा रही है.उस स्वेटर वाले का पक्का इरादा है कि वो चुप रहेगा. खिचड़ी दाढ़ी वाला बोलना चाह रहा है लेकिन उसे कोई बोलने नही दे रहा है.जो चुप है उनको सुनना चाह रहे है.कि विशाल स्कूल वाली बात फिर से शुरू करता है. ‘’ माटसाब को पता है कि तुम्हारे बच्चे तीन साल पहले यही पढ़ते थे?’’
‘’हाँ.उनको सब पता है.बड़ी वाली मेघा है और बेटा मिलिंद है.वो तो बोले दोनों की चाइल्ड आयडी भी लाओं और पंचायत मंत्री बोले तुम्हारा नाम गाँव से काट दिया है.अब अगले साल वोटर लिस्ट में नाम जुड़ेगा फिर आयडी बनेगी.फिर भी एडमिशन मिलेगा कि नही पता नही.सबूत चाहिए,वो मेरे पास नही है वो सब तो स्कूल में है और मेरा घर गाँव में होके भी अब छह महीने रहने के बाद फायनल होगा.इसके बाद निवासी का, जाति का भी प्रमाणपत्र चाहिए.फिर तब बोलेंगे बच्चों की उमर ज्यादा हो गई.अब किसलिए पढ़ाई?’’
हार चुके आदमी को भरोसा देने के लिए विशाल ने कहा,‘’ लेकिन नियम तो यह है कि उम्र के हिसाब से क्लास में एडमिशन दे देना चाहिए.टीसी तो जरूरी नही है.पता नही क्यों दे नही दे रहे है एडमिशन?कोई और बात तो नही है?कुछ उल्टा सीधा गुस्से में तो नही बोला?’’
‘’सच्ची ईमान से बोल रिया हूँ कि हर बार हाथ जोड़े.पाँव पड़े.भोत बार और वो बोले मैं क्या करू?कायदा है.सरकार ने नही लिखा कि टीसी जरूरी नही.नही लिखा कि आईडी आधार जरुरी है.मास्टर ऐसा बोलते है.बोले कि स्कूल अगले बरस खुलेगा तो तब देखेंगे और ऐसा बोलके मेरी तरफ देखते है.फिर क्या बोलू? पांच छ इंच वाली लकड़ी से जमीन को खोदते हुए फिर बोला,’’सच्ची कसम खाता हूँ एडमिशन होने पे दारू नशा सब छोड़ दूंगा.एडमिशन दिला दो साब वर्ना मेरे बच्चे मेरे जैसे मजूर हो जायेंगे.मै मेरे बच्चो को कुछ नही दे पाया.बच्चों को मजूर बनाना नही चाहता मै.जो काम मैं करता हूँ वो मेरे बच्चें नी करें.बीएस इतना चाहता हु.’’
    सब चुप है.हल्केराम की आँखों में आंसू है.एक इरादा है.ढेर सारा दुःख है.एक बड़ा सपना है.एक अपनी दुनिया है और सब उसके आसमान तले बैठे हुए है.कोई बोलता नही कि जान गए हल्केराम को.इस चुप्पी को तोड़कर फिर बोलता है हल्केराम, ‘’स्कुल में सब बच्चों को नुक्ती का लड्डू मिलता है,पन्दरा अगस्त को. मेरे बच्चों को नही मिलता. बच्चों पे क्या गुजरती है? उसने ऐसा कौन सा गुनाह किया है जिसकी सजा वो भुगत रहा है?...आपको मालुम है?नी मालुम.मुझे मालुम है, क्या सोचते होंगे मेरे बच्चे.और सच बताऊ तो मेरको भी नही मालुम मेरे बच्चों के दिल पे क्या गुजरती होगी.बात नुक्ती के एक लड्डू की नही है.वो मास्टर क्यों नही चाहता कि मेरे बच्चें पढ़े?आपको मालुम है?नही.आपको कुछ नही मालुम.कुछ नही.मेरको मालुम है.सब मालुम है.कोई नही चाहता मेरे बच्चे पढ़े.और एक बात बताऊँ मैं चाहूँ तो उस मास्टर को ही खतम कर कर सकता हूँ.ये बात मास्टर भी जानता है.लेकिन उसे खतम नही करूँगा.किस किसको खतम करू?किस किसको?’’हल्केराम ने लकड़ी को जमीन पर इस तरह खड़ा किया कि विशाल को लगा सबसे बड़े कोर्ट के न्यायाधीश ने ऐतिहासिक फैसला सुना दिया हो. सब हक्के बक्के रह गए.हत्या का विचार हत्या सा लगा कि तभी गुझिया कचोरी बेचने वाली महिला सामने आई.बोलने लगी,''सुन हल्कू उठ.स्कुल चल. अब देखते है जमाने को. मास्टर कैसे मना करता है.तू चल.वो नी माने तो शिकायत करेंगे.बच्चें तो पढेंगे.हर हाल में पढेंगे.'' वो इस तरह से आई और बोली कि लगा ये इतना गर्म उबलता हुआ तेल है जिसमें कुछ भी डालों वो उसे तल देगी.

 2016                              ==

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को   भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...