- कैलाश वानखेड़े
घर के भीतर चूल्हे
के अंदर कसमसाती है आग. कागज पर सवार होकर आग गीली लकड़ियों के उपर चढ़ती है और दम तोड़ने
लगती है. कागज जलाने से पहले पढ़ती है उन पर लिखी हुई इबारत को. उनमें लिखे हुए इतिहास
को कि पोथी-पुराण ही जले, तभी कागज
खत्म हो जाते है. गीली लकड़िया
मुहं छिपाकर हंसती है कि कर ले जितना जतन करना हो, हम इन झूठो से राख नही होने वाले है. आग में इन्हें ही भसम हो
जाना है कि तभी उठाती है
घासलेट, रत्नप्रभा.मैं एकटक
देखता ही रहा रत्नप्रभा को कि कागज पढ-पढकर छांटने के बाद अब क्या करने वाली है. धुएं
की हलकी परत में लालपन उसकी सफेद आंखों के भीतर छा गया है . फूंक मारते-मारते थक गई
है कि अब आखरी रास्ता बस घासलेट है. आग बनाने वाली लडकियां जानती है, इस रास्ते को.वह घासलेट का पाँच लीटर का
केन उठाती है. कबाड़ी की दुकान से दस रुपये में खरीदा हुआ ये सनफ्लावर तेल का डिब्बा, घासलेट का बसेरा बना हुआ है. गीली लकड़ियों
के उपर डालती है घासलेट. घासलेट की बूंदों की गिनती मैनें बीवी के मुंह से सुनी. जब
मैं मटके से पानी निकालकर पी रहा हूं तब, यह ग्यारहवीं
बूंद थी और रत्नप्रभा की जबान ने कहा, ओह !
एक
ज्यादा गिर गई. खुले हुए
मुंह को बंद करने के लिए रत्नप्रभा ने मुंह पर हाथ रखा. कुछ और न बोले जबान, जबान का क्या है, बोल देती है वह जो जी में आता है, लेकिन जो जी में आये, उसे बोलना नही चाहिए, बिल्कुल नही बोलना चाहिए. कहां बोलता है
कोई बात जो उसके जी मे आती है. जी में
आने वाली बात को बंद करने की ट्रेनिंग बचपन से ही मिल जाती है, मत बोलो....मत बोल, मत बोल कि घासलेट की उस ग्यारहवीं बूंद के
गिरने से घर गृहस्थी पर असर होगा कि यह कोई संसद नही, जो गिर गई सो गिर गई. मैं कहना चाहता रहा कि मेरी रत्नप्रभा मत
हो उदास. इस देश में न जाने क्या क्या गिर चुका है. गिरे हुए इंसानों का आंकड़ा विकास के आंकड़ों
से बड़ा है. गिरे हुए इंसान
भी बोल सकते है, कभी जी की बात ? बहुत कुछ गिर चूका है, बहुत कुछ गिर रहा है तो भी खामोश है सब. उनकी खामोशी तोड़ता है बस शेयर बाजार, शेयर गिरते है, तो न जाने क्या-क्या गिरता है.गिरे हुए शेयरों
में गिरे हुए लोग गिर गिर कर कहां पहुंच जाते है, ‘हर्ष ‘ के साथ
‘सत्यम.‘ मुझे है खबर लेकिन यह घासलेट की ग्यारहवीं
बूंद के गिरने के बाद तुम जिस तरह गिरी कि तब लगा मुझे, मैं आसमान से गिरा था, मैं तब किसी ग्यारहवीं मंजिला इमारत से ही
गिरा था. लगा वह ग्यारहवीं
बूंद घासलेट की, वह रत्नप्रभा ही
है, जिसे नही गिरना
था लेकिन जो अनायास गिर गई.
मैं समझ ही नही
पाया कि कोई औरत इस तरह भी घासलेट की बूंदों को गिनती होगी. रत्नप्रभा क्या क्या गिनती
होगी ? दाल, दाल जिसके दाम नही गिरे. दाल के दाने गिनती होगी ? क्या वह दूध और तेल की बूंद भी गिनती होगी
? क्या वह साबुन के झाग भी गिनती होगी
क्या उसने क्षण, पल, वक्त को भी इसी तरह गिना होगा ?
कैसे लगता होगा, इस तरह की गिनती गिनते वक्त ? क्या-क्या गिना जाता होगा, उस गिनती के साथ ?
सपने ? सपनों के भीतर की बनावट....न चाहते हुए भी
उन बूंदों को गीली लकड़ियों के उपर डालने और सुलगने की उम्मीदों के बीच क्या स्वाह होता
होगा ? तभी जाना मैनें
हां तभी जाना कि पहली बूंद, गिनती का
पहला शब्द से होकर गुजरती होगी तो वह अपने साथ सुखी घर के सपनों को भी घसीटती होगी.सुख
की यह आकांक्षा भी गिरती होगी, जैसे गिरती
है आकाश से बारिश की निर्मल मासूम बूंद और किचड़ में शामिल हो जाती है. अगली बूंद का
वक्त आने पर भूल जाता है दिमाग सुख, सुखी जैसे
शब्दों के मायने और अगली बूंद इसलिए गिरती है कि उसे गिरना ही है कि तीसरी बूंद धकेल
देती है उसे कि अगला दिन, कुछ नया
होकर आयेगा इसी उम्मीद के साथ.
अटक गया था गले
में पानी, हाथ में गिलास, दिमाग में गीली लकड़िया, दिल के भीतर रत्नप्रभा की सलोनी सूरत, मन में रत्नप्रभा के ख्वाहिश के सूखे हुए
फूल.
कोई पेड़-पौधा नही
है पूरी कॉलोनी में जिसमें लगते हो, फूल. फल
नही है, खुशबु भी नही है....खाली
जमीन नहीं है...गमलों में सजा लू तो गमलों को हर दिन देने के लिए पानी नही है. पूरी कॉलोनी में नल नही है. जहां पानी नही हो तो वहां फूल नही होते, फल की बात ? छोड़िये मैं तो सब्जी खरीदने चला हूं. सच तो यह है कि जहां लगती है सब्जी की दुकान
और खड़े रहते है सब्जी के ठेले, वहां जाने
से कतराता हूं, लेकिन बातों को
सुनने के बाद जब तमाम रास्ते घरवाली बंद कर देती है तब उठता है डर, आशंका, अपमान, मेरी समझ
पर हंसने वाले अज्ञात चेहरों को सोचकर. मेरे चेहरे पर सवार हो जाने से रत्नप्रभा मेरी
परेशानी समझकर मेरे चेहरे को देखकर कहती है,
”ऐसे कैसे चलेगी जिंदगी ?‘‘ तो समझ
में आता है कि जिंदगी जैसी भी कोई चीज है, जीना ही
जिंदगी है या और कुछ ? ताकता हूं
उसके चेहरे को, देखता हूं घर को
और सोचना बंद कर देता हूं, घर से बाहर
निकलता हूं, जब लगे कि इस रास्ते
के अलावा कोई रास्ता नही तब पैर भी चलने लगते है. दिमाग में उठते ख्यालों के साथ और मैं चलने
लगता हूँ कि अबोध बच्चा गिरने के डर के साथ,
घरवालों की पिटाई भय के कारण चलता हो. जानबुझकर सीधे और शार्टकट वाले रास्ते पर
नही चलता हूं. आदत है
या स्वभाव नही मालूम.नही अपनाया शार्टकट. समय नही बचाना है, जाने की जल्दी नही, जल्दी पहुंचना नही चाहता हूँ , चाहता हूं कि जब सब्जी की दुकानों की जगह
पर पहुंच जाऊं, तब वहां सब्जीवाले
न हो, वे जा चुके हो अपने-अपने
घर और तब कहूंगा घर
आकर कि आज नही था कोई सब्जीवाला. भला इतनी
न थमने वाली बारिश में कैसे आ सकती है सब्जी ?
तब शेर बन जाउंगा और बिना रुके तमाम अपमान,
पीड़ा और भय को निकाल दुंगा शब्दों से, जो पड़ेंगें
हंटर की तरह घरवाली पर तो...तो ? हंटर और
रत्नप्रभा शब्द के जेहन में पड़ते ही उतर गया चेहरा मेरा. कितना सहती है, फिर भी कुछ नही कहती है, वह मर चुकी हो जैसे और टूट चुका हूं मैं. क्या कहेंगे हम एक दुसरे से ? नही कहूंगा मैं उससे ऐसे शब्दों और भावना
के साथ जो अभी अभी उतर आये थे मेरे दिमाग में. शब्दों की मार कितनी खतरनाक होती है, यह वही जान सकता है, जिसने सहा हो शब्दों से प्रताड़ना. जिसके झुलस गए हो शब्दों की आग में तमाम
सपने, शब्दों तुम प्रताड़ना
और पीड़ा के लिए क्यों हथियार बनते हो ?
कॉलोनी पार करने
के बाद जो चौराहा आता है, उसे खडा
शेर चौराहा कहते है. शेर दिखता
नही है.शेर की मूर्ति, गुमटियों
के पीछे है, सामने वाली रोड़
मंड़ी की तरफ जाती है, जहां गेंहूं, चना,
सोयाबीन, बैलगाड़ियों से आता
है और ट्रकों से जाता
है.गाय, बैल, आदमी के मलमूत्र से भरा हुआ है. उस रोड़ का कॉलोनी की तरफ जाता हुआ रास्ता, मंडी के रोड़ के खिलाफ जाती हुई सड़क पार करने
के बाद बाम्बे बाजार की सड़क से बाये हाथ की तरफ सर्पाकार वाली सड़क पर नही जाते है मेरे
कदम, क्योंकि उधर बुधवारा
है, जहाँ सब्जी मण्डी
है. मैं सीधे जसवाड़ी
रोड़ पकड़ लेता हूं. बेदखल हो जाता हूं शहर से,
सब्जी मण्डी से. वहीं पर जहां कस्बा विधिवत् समाप्त हो जाता है वहां इंद्रधनुष
दिखा. मुझे अच्छी तरह
से याद है जब मैं नौ साल का था और पड़ोस वाले चाचाजी ले गये थे, अपने भाई की बेटी की शादी में किसी गांव. आज तक नही मालूम उस गांव का नाम, बस याद इतना है तब सुबह-सुबह देखा था इंद्रधनुष. कितना वक्त गुजर गया है ?इन सफेद बालों की
मौजूदगी से लगा कितनी उम्र निकल गई और ये इंद्रघनुष अब मिला. इस 46 साल की उम्र में भी महसूस किया मैनें नौ
साल का बचपन. खूब जी भर कर देखा इंद्रधनुष,
फिर सूरज भी आ गया और खिल गया मौसम. बदन को नही मिली थी गरमी, न गरमी का अहसास, कई दिन
से और आज इतवार के दिन सूरज की मौजूदगी ने गरमी भर दी.
सूरज क्या हमारे
लिए छुट्टी लेकर आया था, सण्डे की
?
अब नहीं जाना सब्जी
मार्केट. एक एक बात को खोलते
हुए एक अजीब सा ठहराव आ गया. ठहरने की
शक्ति, ठहरने का काम नही
किया था पत्नी ने. गीली लकड़ियों के कारण मुझे देख नही पाई या देखना नही चाह रही थी. क्यों देखना चाहेगी मुझे ? तब सवाल ही खड़ा हो रहा था मेरे भीतर कि असीम
की कापी के एक पन्ने को फाड़ती है.जिस पर रत्नप्रभा ने कई साल पहले लिखी थी कविता,‘‘मछली जल की रानी है, हाथ लगाओं डर जाती है, बाहर निकालों मर जाती है.‘‘असीम को सुनाती थी , असीम की खिलखिलाहट से रत्नप्रभा हंसती थी, कि हंस रहा है बच्चा. नहीं चाहती रत्नप्रभा
इस कविता पर हंसना पर स्कूल में इस कविता पर हंसना ही सीखाया गया है, इसलिए बेटा हंस रहा था, ताली बजा रहा था....बाहर निकालों मर जाती
है...मछली....रानी....मछली रानी तड़प तड़प कर मरती है बिन पानी.
कितनी मछलियां बिन
पानी मरती होगी तडफ तडफ कर....किस प्रकार की मछली ?
हँस रही थी रत्नप्रभा.
सोच रही थी रत्नप्रभा तब. अब रो रही रत्नप्रभा...बारिश से डूबने को तैयार घर के सामने
बहते हुए पानी को देखकर खुश होता था बच्चा....बारिश देखों और खुशी मनाओं यही सीख है
बच्चे को स्कूल की ....इस बारिश ने इस घर को बर्बाद करने में सारी जान लगा दी.लगता
है दीवारे गिर जायेगी.छत उड जायेगी...घबरा जाती थी रत्नप्रभा कि असीम झिंझोडता है, मां नाव बना दो...नाव बना दो न...उसी पन्ने
की नाव बनाना चाहती है रत्नप्रभा,जिस पर लिखी थी मछली रानी...उसी पन्ने की नाव पर सवार
होकर निकलना चाहती है,रत्नप्रभा अमीम को गोद में लेती है, सीने से चिपकाती है और आंसू पोंछकर कहती
है, ‘‘नाव बन तो जायेगी
लेकिन डूब जायेगी.बाहर बहुत पानी है.जब बारिश बंद होगी तब.तब बनायेगे नाव.‘‘भरोसा करता है बच्चा.
असीम के भरोसे के
कारण कई साल पहले रखी हुई कापियों की यादों में खोकर वापस चूल्हें के पास आ जाती है, रत्नप्रभा...तो रत्नप्रभा ने लकड़ियों को
उपर नीचे करते हुए, असीम की कापी के
पन्ने को चूल्हें की गुफा में माचिस की जलती तीली को दिखाकर रख दिया, यह आग ही थी जिसने रत्नप्रभा के चेहरे पर
चमक ला दी गोल्डन. सोने की पॉलिश इसे ही कहते है.उस आग की रत्नप्रभा के चेहरे पर परछाई
देखते हुए लगा था मेकअप है सारे कष्ट, दुख और
पीड़ा को छिपाकर रखना. आग जलने
पर रत्नप्रभा जलती है या जगमगाती है ? और अभी
सूरज गरम नही हो पाया, रत्नप्रभा
मेरे पास नही थी, रत्नप्रभा की आग
नही थी,. सूरज वापस अंधेरे बादलों में छिप गया और
देखते ही देखते इंद्रधनुष भी खो गया, इतने बरसों
बाद इंद्रधनुष देख रहा हूं और दिमाग में चूल्हा सुलग रहा है.
सड़क के नाम
पर मरणासन्न पत्थर बिखरे हुए है, पत्थरों
को भी सूरज की चाहत दिखी, उनमें से
कुछ पत्थर घर ले जाने के लिए उठाये मैनें. चूल्हें की आग, चूल्हें
से बेवजह बाहर निकलती है. उस आग को
इन पत्थरों से रुकवा दूंगा तो घर के भीतर भी गरम पत्थरों के सीने से गरमी निकलेगी और
उसकी इंसान {?} को जरुरत है. फिर निकलकर गरम हो रहा सूरज और तपिश महसूस
कर रहा हूं मैं.
मैं लौटकर तब
उस सड़क की तरफ गया जो बुधवारा कहलाता है जहां सब्जियां रहती है, जो जमीन पर लगाते है दुकान, वे नही है. वे हो भी नही सकते क्योंकि इतना किचड़ है, इतनी गंदगी है, इतना गंदा पानी है कि उसमें कोई खड़ा भी नही
हो सकता है, तमाम आर्थिक विकास और महाशक्ति बनने के दावों
के बावजूद फिर वह सब्जी वाली शेवन्तीबाई कैसे बैठ सकती है ? मैं शेवन्तीबाई को ही ढूंढ रहा हूँ कि वह कहीं किसी
कोने में अपनी टोकरी में कुछ आलु, बैंगन, कुछ धनिया, कुछ मिर्ची लेकर खड़ी होगी तो ले लूंगा, दो आलू, चार आने का धनिया. कहते तो यह भी है लोग शेवन्तीबाई सड़ी गली सब्जी बेचती है, उसकी सब्जियों के भाव इसलिये सबसे कम होते.
मैं भाव देखता हूँ, सब्जी नही. भाव
देखना महत्वपूर्ण होता है. इसलिये जब भी महिने में एकाध बार जाता हूं सब्जी मंडी तो
बस शेवन्तीबाई से ही लेता हूँ सब्जी, मुझे नही
दिखी शेवन्तीबाई, हाँ और न ही उसके पड़ोस में बैठने वाला दादू और तो और कोई भी जमीन
पर बैठने वाला नही दिखा, ठेले वाला
भी नही दिखा, दिखी तो बस गंदगी.
किचड़ से सनी हुई.
शायद अगली गली
में हो खड़ा कोई ठेले वाला. इसी उम्मीद से कदम रखता हूँ.किचड़, चप्पल के तल से छपाक से
पेंट के पीछे बैठ जाता है. इतना किचड़, बाप रे
बाप, कैसे संभल संभलकर
रख रहा हूं कदम कि कपड़े गंदे न हो जाय कि पत्नी को कपड़े धोने में परेशानी न हो, उपर से इस गीले मौसम में, अगर ये जोड़ गीला हो गया तो फिर कल क्या पहनूंगा
? वैसे ही दो जोड़ गंदे पड़े है, पत्नी उसे इसलिये धोना नही चाहती कि साबुन
नही है, कि अगर ऐसे ही बिना
साबुन के कपड़े धो दिए तो साफ नही होंगें और सूख भी नही पायेंगें. ”बरसात में न सूखने वाले अधगिलेपन के साथ
गंदे कपड़ों की गंध में उड़ेगा मजाक“ तो कहा
था पत्नी ने ‘‘कपड़ो का नही मेरा
मजाक उड़ाया जायेगा.‘‘
मैने हंसते
हुए बोला, ‘‘मजाक उड़ाये जाने
से डरता हूं.‘‘
”डर...? “ रत्नप्रभा ने कहा था और मेरे हंसते हुए चेहरे पर डर सवार हो
गया था.”नही.“ मैंने कहा था, उसके चेहरे को देखा तो वह अपराधबोध से भर
गई थी . अपराध बोध से डरी
हुई रत्नप्रभा ने गीली पेंट को झटक दिया, उसमें से
बेहद नन्हीं-नन्हीं बून्दें ओस की शक्ल में निकली और फैल गई, उन्हीं बूंदों से डर मेरे चेहरे से उतर गया
लेकिन रत्नप्रभा खामोश हो गई थी.
”क्या हुआ ?“
”कुछ नही.“
”लाओ इस पैंट को मैं देखता हूं.“
”छोड़ो, इसे मुझे देख लेने दो,
तुम दिन भर देखते रहते हो.“
”हाँ.“
”किसे देखते रहते हो ? दिन भर... नजरों से कह दो कुछ इधर भी देखें...“रत्नप्रभा ने कहा था . उसे देखा और हम दोनों
दिल खोलकर हंसे थे . रत्नप्रभा
को बांहों में भर लिया था. हंसी अब चली गई तब सोचा मैनें कि कितना परेशान
रहती है रत्नप्रभा और उस पर एक और मुसीबत लाद दूं, गीले और गंदे कपड़ों के रुप में ? सोच रहा हूँ कि तभी रामदयाल की आवाज सुनाई दी ”सब्जी कहां आ रही है सर ? सब ट्रेफिक बंद है, खेत-बगीचे में गल गई सब्जियां. ये तो इंदौर से बुलवाई है. इंदौर में थी, इंदौर वाली नही है सब्जी“. वह हीरो होण्डा वाले को कह रहा है, सुन मै रहा हूं. मुझमें हिम्मत नही है कि मैं चला जाऊं उस
रामदयाल की सब्जी की दुकान पर जो पक्के मकान में ऊपरवाली मंजिल में रहता है, नीचे पक्की दुकान में सब्जी बेची जा सकती
है ? दुकान का किराया
जोड़ता हूँ तो लगता है क्यों नही बेचे सब्जी महंगी ? वह सब्जियों को साफ पानी में धोता है, एकदम फ्रेश और ताजी सब्जी बेचता है, किड़ा नही मिलेगा, एक भी नही, किड़े का कोई अंश भी नही. ऐसी दुकानों के
बारे में आंखों से ही जाना कि वहां बड़े लोग ही जाते है. वे लोग अपनी गाड़ी को यूं हीं
कहीं भी खड़ी करके आते है. सब्जी देखते
है, तुलवाते है, डलवाते है और बटुए में से रुपये देते है.
रामदयाल कुछ नोट वापस देता है. दोनों मुस्कुराते
है, जी थैंक्यू कहता
है रामदयाल और फिर दूसरे को तौलता है, भाव नही
बोलता. आदमी तौलता, आदमी से कुछ नही बोलता फिर भी आदमी डरता है
सबके सामने रामदयाल के तौल से. डरते है लोग,
सबको पता चल जायेगा कि वजन नहीं है, खुल जायेगी
पोल इसलिए नही तुलवाते
है लोग, कौन बोले ? भीतर से भुने हुए खोखले चने की तरह है , जो दिखने में भारी लगता है लेकिन होता है
हल्का,खोखला. फिर अपना बड़े होने का अहसास दिलाने के लिए भाव नही करता और यही बात मुझे
हैरान करती है. बिना मोलभाव
के कुछ चीजें ली जा सकती है ? हाँ जूते
जरुर ले सकते है, लेकिन जूता कब खरीदा
था ? ख़याल स्लीपर में
हुए छेद में से निकलकर किचड़ में चला जाता है,
वहीं लोग जब ठेले से या जमीन वालों से खरीदते है, तब मोलभाव जरुर करते है. जूता नही है मेरे पास वरना मैं भी निकालकर
फेंक सकता हूँ बुश साहब.
मैं पहले ही डरा
हुआ हूँ.गीली पेंट, मजाक की बाते हंसी
से बाहर नही निकली थी. उसकी महंगी सब्जी की बात सोचकर हिम्मत ही नही हुई आगे जाने की, वह खा जायेगा, हाँ खा जायेगा, यही डर है, लेकिन सुलगते हुए चूल्हे और रत्नप्रभा का
चेहरे के साथ लगा कि कई दिनों से घर में नहीं पकी थी हरी सब्जी. हरी सब्जी खानी चाहिए, इसी ख्याल के साथ असीम की याद के कारण मेरे
कदम आगे बढ़े और डर को भगाकर मैं चला आया रामदयाल की दुकान पर. उसने आलु के भाव बताया
15 रूपए किलो. इस पर मैनें दुबारा पूछा, क्योंकि मुझे यकिन ही नही हो रहा है और वह
ताना देता हुआ बोला बहरे हो... फिर कहा...अंधे हो जो दिखता नही....क्यों खाते हो सब्जियॉ
? डाक्टर ने सलाह दी ? ...डॉक्टर तो नी दे ऐसी सलाह फिर ज्योतिषी बोला
था, जा बच्चा सब्जी
मंडी, तेरे भाग खुलेंगे,किचड़
में... किसने बोला इधर आने का. उसका नाम बता फिर मैं देखता हूँ धंधा खोटी करने वाले
को...’’वह तब भी नही रुका. और कहा, ‘‘तुम लोग आते ही क्यों हो ?‘‘
मेरे पास जवाब
नही है. मैं तुम लोग का
मतलब समझना चाह रहा हूँ. मेरे लिए
मेरे हिसाब से तय करता है रामदयाल.
रामदयाल मेरे चेहरे से, मेरे कपड़े
और किचड़ से भरे हुए पैरों में गुम हो चुकी चप्पल से चलता हुआ मेरी कॉलोनी मेरे मकान
तक पहूँच जाता है. वहां नही
रुकता, वह तय करता है फिर
औकात, उसके पास और क्या
है मेरी हैसियत तय करने के लिए? कितने लोग
जाते है पूरे शहर के सब्जियां खरीदने ? जानता है
रामदयाल सब्जी खरीदने वालों को....उनका खानदान वंश गोत्र सब जानता है. जानता है वह
किसकी पहुंच में है सब्जियां.
सच तो यह है कि
मैं समझ ही नही पाया, तुम लोग
इस खांचे में कैसे डाल दिया उसने. इस तरह से बेदखल हो गया. मै कितना अपमानित हुआ...इतना
तो डूब मरने लायक अभी सोचकर हो रहा हूँ.होने वाले अपमान का विचार ही अपमानित कर देता
है, होने के बाद तो
वह पीड़ा से एकाकार हो जाता है. पीड़ा गीली
लकड़ियों की तरह हो गई. रत्नप्रभा
नही थी कि जलाती, जलाने के लिए घासलेट
डाल देती, दिखा देती उसे माचिस
की तीली, वह तीली मैं नही
बन पाया.
मैं क्या करता, वापस चला आया अंधेरे के साथ घर . रत्नप्रभा उम्मीद की ढीबरी के साथ बैठी मिली. घासलेट से जलाती हुई ढीबरी को, अंधेरा बढ़ गया या रोशनी कम लेकिन रत्नप्रभा
के चेहरे पर जलती हुई लकड़ियों की आग से पैदा हुई गोल्डन चमक अब उतर चुकी है. सोने के भाव नही उतरे. सोना आसमान की बुलंदी
छू रहा है, अब इस वक्त इस आग
के बूझने का भी वक्त आ गया? रत्नप्रभा
चाहती है कि इस मुठ्ठीभर रोशनी के साथ, मैं दो
रोटी खा लूं उसके साथ तो अंधेरे से लड़ लेंगें हम. बेमन से रोटी चबाते चबाते ही लगा कि खुद
को चबा रहा हूँ, रोटी की शक्ल में.
सुबह घर से बाहर
निकला हूँ . कंट्रोल की दुकान अभी खुली नहीं है. किराने की दुकान से लेता हूँ, गाहे
बगाहे किराना सामान. रूकता हूँ उधारी के पैसे पूछने के लिए कि एक आदमी कहता है दुकानदार
से, ‘केरोसीन देना एक
रूपै का.’’
दुकानदार बेरुखी
से कहता है.‘‘ एक रूपये का.. ? नहीं है मिट्टी का तेल.‘‘
‘‘तो किरासीन ही दे दे.‘‘ वह हंसता है. दुकानदार का चेहरा भावहीन हो
जाता है. मिट्टी का तेल, घासलेट ,केरोसीन अलग अलग नाम आ जाने से .
वह हमारी गली वाला
है. समाधान नाम है उसका.वह दुकानदार से कह रहा है. ‘‘भोत दिनों से अंधेरे में सो रहा हूँ. आज अंधेरे में सोने का
मन नहीं करता.‘‘
‘‘तेरको डर लगता है?‘‘ उसी भावहीन चेहरे से कहता है दुकानदार.
‘‘अरे डर किसका...? ये दारू की बोतल है ना, इसको लेके सोता हूँ .आज बोतल में घासलेट
डालने का मन था, चिमनी बनाने के
वास्ते. लेकिन तू समझता ही नहीं.‘‘
‘‘एक रूपये का नहीं मिलता मिट्टी का तेल.‘‘
‘‘क्यों नहीं मिलता ?’’
‘’एक रूपये
का शैंपू नहीं मिलता ?शैम्पू
ले ले. बहुत दिनों से नहाया नी है तू जा नहा ले.‘‘
‘‘तू तो कंपनी का आदमी लगता है...ये बता मैं
नाधोके क्या करूंगा?मेरे को तो घासलेट चाहिए.‘‘
‘‘जा नहीं मिलता. एक रूपये का.‘‘
‘‘कुछ घंटे ही चिमनी जला लूंगा. मैं देखना
चाहता हूँ कि रोशनी में नींद आती कि नी. मैं रोशनी में सोना चाहता हूँ.‘‘
‘‘रोशनी में सो के क्या करेगा. घासलेटी ? दारू पी पी के बाडी जला रहा तू... ना भाई
सुब्बे सुब्बे बोनी बट्टे के टेम पे दिमाग मत खा.‘‘उसने पुडिया बंधाते हुए समाधान को बिना देखे कहा.
‘‘जा बे नी चीये तेरा घासलेट. इस अददे में.
हम तो खुद ही घासलेट है. जलते रहते है. तू क्यों जला रीया. ला माचिस की पेटी दे. वो तो मिलती है न एक
रूपये में. फिर देख मैं क्या करता माचिस का?‘‘
‘‘तू जा यार...घर में खाता नही पीता नी, क्या करेगा माचिस का...जा भाई. खतम हो गई
माचिस. घासपूरा वाले तुम लोग भी सुधरोगे नी.‘‘अलग
अलग रंग के पाउच के पैकेट टांगते हुए बोला .
‘‘हमारे लिए नी माचिस है नी घासलेट...वा रे...समाधान
नाम है मेरा स... मा...धा...न...‘‘ गिरते गिरते
बचा समाधान सुरडकर.
‘‘चल ग्राहक आने दे. हट.‘‘
‘‘हम ग्राहक नहीं है ?‘‘समाधान ने गुस्से से कहा .
‘‘पागल हो गया है तू. तुम लोग हमारे ग्राहक
नहीं हो.‘‘ तोंद पर हाथ फेरते
हुए दुकानदार ने शक्कर तोलते हुए समाधान से कहा.समाधान जाते जाते बोला ,गरहाक...?मै
बताता तेरेको .’’
मुझे क्या देगा
ये दुकानदार ? घर में घासलेट की
केन में चंद बूंदे बची थी, ग्यारहवी
बूंद के गिर जाने की पीड़ा में माचिस की चाह में मुझे लगा मेरा ही नाम है समाधान सुरडकर.
घासलेट किराने की
दुकान पर मिलता है. कंट्रोल की दुकान से तीन गुना ज्यादा दाम पर. वह हमारीं गली के
मुहाने पर, पक्की रोड़ वाली
सड़क के किनारे पर इस दुकान पर मिलता है. दुकान सेतु है. शहर के बाकि हिस्से का प्रवेश
द्वार है हमारे गली का. जरूरत की चीजें मिलती है, दुकानदार जिसके सिर के बाल गायब हो चुके है, तोंद बाहर आ चुकी, जो हर बार खड़ा दिखता है, जो सामान तौलता है, सामान छोटू लाता है, छोटू हमारी गली का दस साल का लड़का. फुर्तीला, समझदार, आंखो के
इशारें और शब्दों के उतार चढ़ाव के मायने जानता है, उसे कहता है दुकानदार,
‘‘छोटू, भाईसाहब को मिट्टी
का तेल देना पावभर.’’ घासलेट
मांगे जाने पर समझ जाता है दुकानदार कि मिट्टी का तेल मांग रहाहै ग्राहक . दुकानदार
घासलेट को घासलेट कभी नहीं बोल पाया, हमारी कॉलोनी
भी मिट्टी का तेल बोल ही नहीं पाई और उम्र बढ़नें के बावजूद मिट्टी का तेल हमारे दिमागीं
शब्दकोश में आ तो गया लेकिन जबान पर बैठ नहीं पाया.
किराने की दुकान
पर जाने की बजाए मैं रामकृष्णगंज, जो हमारे
घासपुरा से लगा हुआ है, की तरफ
चलने लगता हूँ . हमारे यहां जिसे गली कहते है वह रामकृष्णगंज में सड़क कहलाती है. दूकान
काली सड़क के किनारे है या सडक के ऊपर, पता नहीं
चलता, किस जगह है ब्रजलाल
की दुकान. कॉलोनी के नाम के साथ आदमी बा-वजूद जुड जाता है. ब्रजलाल तिवारी की दुकान
घर रामकृष्णगंज में, हमारा घर घासपुरा
में....मुझे हंसी आती है और घासलेट वाली बात पर याद आ गया कि शादी के एकाध हफ्ते के
बाद ही रत्नप्रभा ने कहा था, ‘‘रॉकेल चाहिए’’
‘‘रॉकेल ?’’ अपरिचित शब्द सहन नहीं हुआ दिमाग को, जिसकी प्रतिक्रिया में मेरी जबान पर असामान्य
गति और बल से निकला रॉकेल शब्द. रत्नप्रभा सहम गई, रत्नप्रभा को लगा कुछ गलत कहा क्या ? मुझें बुरा लगा. इस तरह नहीं बोला जाना चाहिए, पर निकल गया रॉकेल रॉकेट की तरह.क्या होता
है रॉकेल ?
‘‘रॉकेल ...?’’ परिभाषित करना चाहा रत्नप्रभा ने. शादी के
पन्द्रह दिन पूरे नहीं हुए थे और खुल भी नहीं पाई थी. सहम गई उस पर उसे कुछ सूझ ही
नहीं पड़ रहा था. शब्दों की सीमा समाप्त हो गई,
एक सीमा के बाद शब्द अपना अर्थ खो देते है. घर के भीतर इतनी कम चीजें थी कि उसके
साथ साम्यता जोड़ने के लिए कुछ नहीं मिला. सिर उपर उठाया दीवार की तरफ तो सिर टकराता
है छत से, जो बनी है कवेलू
और प्लास्टिक की पन्नी से. टूटे हुए कवेलू से रोशनी झांकती है और घर में उजाला भर
देती है. मैने इस टूटे हुए कवेलू के कारण नीली पन्नी से आती हुई रोशनीं में रत्नप्रभा
की आंखो को देखा. आंखो के भीतर जो दिखा उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं थे तो मैने उसे
अपनीं बाहों में ले लिया. शरमाती, सकुचाती
हुई रत्नप्रभा की देह से आती गंध के अहसास में रत्नप्रभा के गरदन पर मेरे होंठ आ गए.जीभ
कब निकली पता ही नहीं चला, रोशनी में
रत्नप्रभा को अपनी आगोश में पहली बार लिया. पहली बार का पहले अहसास ने टूटे हुए कवेलू
का शुक्रिया अदा किया.
‘‘ रॉकेल चाहिए ’’ रॉकेल अटक गया रत्नप्रभा के दिमाग में और
मैं भूल गया रॉकेल के मायने, टुटे हुए
कवेलू को, बौनी छत को.
‘‘नही समझ
रहा हूँ रॉकेल...क्या होता है ?’’
‘‘ मजाक नको करो ’’
‘‘ सच बोल रहा हूँ ...’’
‘‘ सच्ची बोल रही मै ?’’ रत्नप्रभा
के भोलेपन पर हंसी आई. मैंने उसके सामने हाथ जोडे. उसे अहसास हुआ कि सच कह रहा हूं
मै.
‘‘ रॉकेल...चिमनी में ड़ालते है न...उजाले के
वास्ते.’’
‘‘ घासलेट.......घासलेट कहते है.’’
‘‘ हमारे गांव में तो रॉकेल बोलते है.’’
26 साल गुजर जाने के बाद रॉकेल की जगह घासलेट
ही जबान पर चढ़ बैठा, रत्नप्रभा की जबान
पर.
रॉकेल के साथ यादों
के धूप की रोशनी से आनंद के क्षण ले आया और उसके साथ चलते चलते याद आया कि तिवारी के
घरवाले तो चौथा शब्द बोलते है, केरोसीन. हाँ तमाम उम्र तिवारी के साथ गुजारने
के बाद भी केरोसीन शब्द नही ला पाया अपने घर,
अपनी जुबान पर, लेकिन समझ जाते
है हम सब जिसे जो कहा जाता है उसका वही अर्थ रह जाता है, कुछ नही बदलता उसका. नही बदला कुछ भी, 1947 कहो या 2010.
तिवारी की दुकान
की ओर जाते जाते कई बार रॉकेल का बोला जाना,
रत्नप्रभा का सहम जाना. फिर रत्नप्रभा को बाहों में लेना......हंसी, गुदगुदी और पूरे तन-मन में सरसराहट के साथ
ही चलते चलते दुकान पर पहुंचा. तिवारी से चतुर्वेदी बात कर रहा है, जो नौकरी पेशा आदमी है, आठ साल से है, इस कस्बे में, जिसे नगरपालिका कहा जाता है. उस हंसी मजाक में मैं भी शामिल हो जाता हूँ
बिना किसी औपचारिकता के. मेरे दिमाग में अब भी रॉकेल ही रॉकेल गूँज रहा है, अभी मेरे ओठों से चिपकी हुई है रत्नप्रभा
की चमक. मैं पूछ बैठता हूँ अनायास ही, ‘‘जानते हो
रॉकेल किसे कहते है ?“
‘‘रॉकेट के भाई को.‘‘ चतुर्वेदी कहता है. हंसता है.
”तुम बताओ ?“ मैनें तिवारी के चमकती हुई आँखों को देखकर
कहा, जो हमेशा शरारत
ढूंढती है.
”रॉकेल...
सुना, सुना है मैनें“
”रॉकेल,घासलेट को कहते है.“ मैं रत्नप्रभा की साड़ी का पल्लु मन ही मन
हटाता हूँ .
”घासलेट
को ?“ चतुर्वेदी फिर बोला, ”घासलेट तो हम डालड़ा को कहते है.“
”तुम हो ही उल्टे प्रदेश के....घासलेट को
डालड़ा... हम तो मिट्टी का तेल बोलते है, हमारे रिश्तेदार
लेम्प तेल बोलते है.‘‘ तिवारी
के कहते ही मैंनें कहा, ”लेकिन इस
शहर वाले घासलेट बोलते है...‘‘
‘‘आज तो मजा आ गया, रॉकेल, घासलेट को, घासलेट
डालड़े को....क्या गजब है हमारी संस्कृति...‘‘
‘’
घासलेटी ..?’’मेरे कहने पर जवाब न देते हुए कहा ब्रजलाल
तिवारी ने, ”तुम लोग सबसे ज्यादा
मजे में रहते हो, न रहने का टेंशन
न खाने पीने का. नींद भी
तुम लोग मजे की लेते हो. हम तो स्साला
टेंशन में ही जीते जी मर जाते है.“
घासलेटी
संस्कृति के बीच हुए इस अचानक विषयांतर में निराशा थी खुद के बारे में या फिर हमारे
अस्तित्व को लेकर पीड़ाजनित घृणास्पद शत्रुता,
क्या थी कि मुस्कुराहट चली आई मेरे चेहरे पर उसे चिढ़ाने के लिये. दुकान से खाद
बीज न बिकने की उसकी पीड़ा या फिर सदियों से दुखी दिखने की साजिश का कोई सिरा, कि बरसात के मौसम का तिवारी पर असर ? मुझे बोलने का मौका देने से पहले ही भजिए
बुलवाने का कहा सामने खड़े ठेलेवाले को फिर बोला,”बारिश में गरम भजिए का मजा ही कुछ और होता है, जानते हो क्यों ?‘‘
”नही“
मूल प्रश्न का उत्तर मेरे भीतर ही रहा,
‘‘तुम लोग, तुम लोग... दुकानदार
कहता है तुम लोग...सब्जी वाला कहता है तुम लोग...तिवारी कहता है तुम लोग...तुम लोग...तुम
लोग,बोलते वक्त क्या रहता है, इनके दिमाग
के भीतर?चेहरा, कपडा, जूते चप्पल...जेब...कॉलोनी, घर...?क्या रहती है दिमाग में जाति ? हर आदमी हमारे लिए तुम लोग कहता है, अभी इसी में उलझा हुआ हूँ कि तिवारी बोला, ”ये भजिए भी बड़ी गजब चीज होती है“ मेरे हाँ ना कहने का मौका नही देता तिवारी.
मैं तुम लोग में अटक गया हूँ कि भजिए के बारे
में सोचने लगा, भजिए बनाने के लिये
कम से कम 100 ग्राम तेल की जरु़रत
होती है, उस तेल के लिये
20 रुपये चाहिये, फिर 20 रुपये बेसन, मसाला और
मिर्च, हिसाब आगे बढ़ रहा
है और जेब का छेद सिकुडता जा रहा है, जो घर है
, उसमें ‘’तुम लोग’’ रहते है
, वह जेब के भीतर घुस गया. फिर भी जेब
सिकुड गया.
”हम लोगों को बारिश और भजिए, दो विरोधी चीज लगती है.“
‘‘हम लोग ? मतलब.“ चौंका तिवारी.
‘’जब
बरसात होती है तब घर के भीतर चूल्हा जल नहीं सकता तब भजिये क्या ,सब्जी तक नहीं
बनती है .’’
”चाय तो बन जाती है न.“
”चूल्हा जले तब ना.“
”तो मंगा लूं चाय“
”चाय नही पीता.“
”जानता हूं लेकिन इस मौसम में तो चाय हर कोई
पीता है और ये बड़ी अच्छी बात है तू न दारु पीता है न चाय, स्साली हमसे दोनों नही छूटती“
”चाय हमारे लिये घर का बजट बिगाड़ने की चीज
है. फालतू खर्चा है.इस
खर्च को नही उठा पाते हम, इसलिये
नही पीते चाय. तिवारीजी बारिश आते ही तुम्हारे चेहरे पर चमक आ जाती है और जबान तत्काल
गरम भजिए को कहती है“ मैंने जेब
में हाथ डालना चाहा, लेकिन वहां जेब
नहीं थी.
”हाँ सही तो है, यह जो बारिश है, इसकी बूंदे देखी, इसका सौंदर्य देखो, कैसा मधुर संगीत है, सुनो.“ ”तिवारीजी
न तो मुझे सौंदर्य दिखता है न संगीत का सुर सुनाई देता है, बारिश के मायने और वर्णन मेरे लिए वैसे नही
जैसे आपके है.मेरे लिए बारिश का मतलब गंदे पानी का घर में घुस आना है. घर से निकलना मना है, बारिश बोले तो मकान की दिवारों का गिर जाना
है. दरवाजों के पार नही दिखती बूंदें, नही सुनाई
देता संगीत, जब घर के भीतर बच्चा
भूख के कारण रोता हो, जब बीवी
की आंखों में बारिश का पानी छत से टपकने के बावजूद घुसता नही फिर भी पानी वहीं से निकलता
है, तब सचमुच न तो बारिश
का सौंदर्य समझ में आता है और न ही कोई गान,
संगीत या फिर कोई नृत्य, जैसा तुम्हें
अहसास होता है. सच तो यह भी है कि बारिश के मायने मेरे पिता के लिए मुझसे भी अलग है, तुमसे तो खैर है हीं, गांव में बारिश आने के साथ-साथ डर भी आता
है, अगला कदम क्या होगा
और जो कर्ज लदा रहता है, वह उस बारिश
के सौंदर्य, गीत-संगीत पर भारी
पड़ता है, हम नही कह सकते
है वैसा का वैसा जैसा तुम सोचते हो, हम नही
मान सकते है कि जो तुम कहते हो, वह सच है.
तुम्हें लगता है हम भी तुम्हारी तरह सोचे और कहें. अगर न कह पाये तो तुम कहते हो हमारे
में सौंदर्य बोध नही है.“
”नही,नहीं
.. मेरे कहने का अर्थ
यह नही था, मैं तो चाहता हूँ
कि तुम यहां मेरे पास बैठे हो तो वह महसूस करो,
जो दिख रहा है. सोचो तो
सही कि ये जो बारिश है कितनी सुहावनी है, कितनी रोमांटिक
है, रुमानी है, सारी फिल्मों में बारिश का मतलब, वह होता है, वही सोचो, सोचने में भी क्या कंजूसी और दिमाग को क्या तकलीफ देना.“
”तिवारीजी मै भी चाहता हूँ कि मैं वैसा ही सोचूं. वैसी ही कल्पना
करुं, जैसे भीगती हुई
नायिका की अल्हड़ता, कामुकता, नशा,
रोमांस होता है, वैसा ही और वैसा
ही जैसा तुम पढ़ते रहते हो, पर नही
हो पाता मुझसे . मैं भूल
ही नही पाता कि मेरे झौपड़ी में यह बारीश तबाही के सिवा कुछ नही लायेगी, मेरे बीवी बच्चों को रुलायेगी, तो कैसे कह दूं,जो तुम चाहते हो“
”तुम भी यार बोलने लिखने में भी अच्छा नही
सोच सकते हो, दिल है की नही.
बामन की बात मान लिया करों. बामन झूठ नहीं बोलता...समझे? चल यार. भजिये खा.‘‘ तिवारी बात बदलना चाह रहा है.
‘‘फिर कौन झूठ बोलता है ? हम...जो बामन नहीं वो...तुम क्यों नहीं भूल
जाते कि तुम बामन हो...‘‘
‘‘तुम लोग भी है ना बात पकड़ लेते हो, यही खराबी है, चल भाई, मजे ले ?‘‘ हँसता
चाहता है तिवारी . ”किसके ? बारिश के ? भजिये के
या तेरे ?“ मै बोलता हूँ
सपाटता से.
”जिसके भी नाम मजे ले सकता है, ले ले वरना थंडे हो जायेंगें. ले भजिए खा लें, वैसे भी ये इस मौसम की आखरी बारिश लगती है“
”तो इसके बाद क्या भजिए खाना बंद कर दोगे?“
”कौन बंद करता है ये तो बहाना है, बहाना...जैसे दारु पीने के लिए बहाने चाहिये“
”तुम लोग कितनी जल्दी जस्टीफाई करते हो हर
चीज हो ...फिर कोई नई बात, तर्क गढ़
देते हो जैसे पूजा क्यों करते हो, तब तुमने
ही कहा था मोक्ष के लिये, बहस के
आखरी में तुमने कहा थोड़ी देर चैन से बैठ जाते है, तो शांति मिलती है, मोक्ष भले
न मिले लेकिन शांति तो मिल जाती है न...‘‘
”तु कहां धर्म के धंधें में पड़ गया, तू फिर बहक गया.“ हँसी चाहकर भी नहीं आ पाई .
”सच को बहकना कहते है...“
”मिर्ची ज्यादा हो गई, ओ छोकरे, पानी दे जल्दी...ओ हरामी की औलाद...सुनता नहीं क्या ?‘‘ तिवारी गुस्सा निकालने के लिए बोलता है.
‘‘मिर्ची
ज्यादा नहीं है भजिये में तिवारी जी.लग गई है.‘‘
तले हुए भजिये को उलट पुलट कर, तोड़ता हूँ, भीतर मसाले है, बेसन है, धनिया दिखता है, नहीं दिखती है मिर्ची. फिर तिवारी को
कौन सी मिर्ची लगी.भजिये को मैं खा लेता हूँ.
;;;;;;
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