धर्मेद्र सुशांत ने दैनिक हिंदुस्तान में 3 नवम्बर 2013 में लिखा है .......
ठोस सामाजिक संदर्भ
युवा कथाकार कैलाश वानखेड़े की कहानियां विशेष रूप से हमारे समाज की रगों में गहरे पैठी जातिवादी सोच और उसके हिंसक कारोबार का उद्घाटन करती हैं। इस तरह ये ठोस सामाजिक सच्चई को सामने लाती हैं और उसकी विद्रूपता पर सवाल उठाती हैं। इन कहानियों में अनुभव का बल तो है ही, विवेचना के विवेक की रोशनी भी है। शायद यही वजह है कि ये कहानियां शोषण करने या वर्चस्व जमाने वाली शक्तियों के प्रतिकार के लिए कोई बनावटी उपाय नहीं सुझतीं। इसकी बजाय ये उस सामाजिक ताने-बाने का रग-रेशा खोलकर पाठक के सामने रखती हैं, जिनके दम पर यह भेदभाव संभव होता है। वास्तव में वानखेड़े आग में तपते लोहे की लालिमा दिखाने से अधिक उसके आंतरिक ताप को महसूस कराना चाहते हैं। समकालीन हिंदी दलित लेखन की सशक्त बानगी इन कहानियों में दिखती है। सत्यापन, कैलाश वानखेड़े, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा),
ठोस सामाजिक संदर्भ
युवा कथाकार कैलाश वानखेड़े की कहानियां विशेष रूप से हमारे समाज की रगों में गहरे पैठी जातिवादी सोच और उसके हिंसक कारोबार का उद्घाटन करती हैं। इस तरह ये ठोस सामाजिक सच्चई को सामने लाती हैं और उसकी विद्रूपता पर सवाल उठाती हैं। इन कहानियों में अनुभव का बल तो है ही, विवेचना के विवेक की रोशनी भी है। शायद यही वजह है कि ये कहानियां शोषण करने या वर्चस्व जमाने वाली शक्तियों के प्रतिकार के लिए कोई बनावटी उपाय नहीं सुझतीं। इसकी बजाय ये उस सामाजिक ताने-बाने का रग-रेशा खोलकर पाठक के सामने रखती हैं, जिनके दम पर यह भेदभाव संभव होता है। वास्तव में वानखेड़े आग में तपते लोहे की लालिमा दिखाने से अधिक उसके आंतरिक ताप को महसूस कराना चाहते हैं। समकालीन हिंदी दलित लेखन की सशक्त बानगी इन कहानियों में दिखती है। सत्यापन, कैलाश वानखेड़े, आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा),
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