आपकी लिखी कहानी ‘घंटी’ पढ़ी, एक स्तरीय कहानी है | विशेष यह कि एक अधिकारी के भीतर बैठे सृजनशील लेखन ने उस अंतिम पंक्ति में बैठे व्यक्ति ‘चपरासी’ को कहानी का महानायक बना दिया जिससे कहानी का स्वरुप अनायास ही विराट बन पड़ा | कहानी के नायक काका उर्फ मांगीलाल चौहान के किरदार का हँसमुख, काम के प्रति सजग होना, मेहनती और तनिक मर्यादित भीरुता का होना वाकई ऐसे किरदारों को सामने ले आता है जो आज हमारे आसपास दिखाई दे जाते है लेकिन उनमे हम नायकत्व की खोज नहीं कर पाते है | और कार्यालयीन माहौल का बाजरिया मिश्रा साहब अच्छा वर्णन है | झूठ कैसे इतिहास बन जाता है ये पंक्तियाँ प्रभावशाली है-
‘‘ मिश्रा साब बेबस थे, कैसे समझाये कि कुछ तो बोले... सच नहीं बोल सके तो ये झूठ बोले. झूठ. लेकिन बेवकूफ टाइप का लगा रामनाथ. जिसे बोलने का मौका मिलता है, वह झूठ को सच में मिला देता है. झूठ से भरी किवदंती मिथक में तब्दील होती हुई इतिहास बन जाती है. ये स्साला अपना वाला होकर इतना भी नहीं जानता है कि झूठ बोलना कितना जरूरी है. बेवकूफ........... इस तरह के लोगों के कारण ये दिन देखने पड रहे है.”
अब हमारे देश की सबसे अहम और मूल समस्या की तरफ ये व्यंगात्मक किन्तु वास्तविक आघात भी बहोत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है -
“हमारे घर का, जहां इस तरह के आदमी के कदम तो क्या गंध भी वर्जित है, वहां झाडू लगाने से मना कर दे ? “
“नर्मदा नदी में इतनी गंदगी ? जब दर्शन से ही पुण्य मिल जाता है, तो साला नदी में जाने की क्या जरूरत थी ? ये तो मूर्खता है, साली मूर्खता ............ और ये साले गंवार, न जाने कहां कहां से चले आते हैं और नदी में डुबकी लगा देते है ............ गंदे स्साले सारी गंदगी इनकी ही है, पता नहीं कब से नहीं नहाते है-गंदे................. ये सारा इन्ही का किया धरा है, सारी आबादी तो इन्हीं की है. हम है ही कितने ? सोचते है पुण्य मिलेगा, स्वर्ग लेगा ........ नरक बना रखा है ... पूरा देश ही नरक बन गया ............. वो जमाना भी क्या जमाना था ........... सतयुग जब इनकी छाया भी हम पर नहीं पड़ती थी...... अब कलयुग आ गया .......... कलयुग..........”
हाय रे ! इन मिश्राओं का कलयुग | मिश्राजी ज़रा भी नहीं सोच पाते कि उनकी आत्मा की गन्दगी से सारे देश की नर्मदा गंदी हो रही है | और पुरे देश को नरक में बदल रखा है | ये मिश्राजी कभी ये नहीं सोच पाते कि ये वही किसान, मजदूर, चपरासी जैसे सेवक है जिनकी मेहनत का परिणाम है कि वे इतनी बुद्धिजीवी बातें करने के लिए आराम से बैठे है और ज़िंदा है | काका तो मेहनती है और संतुष्ट भी; जो हमेशा सबका भला ही सोचते है इसलिए खुश है और इसके उलट मिश्रा जी परेशान -
“काका, मटमैला धुंआ, जिनके विषैले कण छा गये. पूरे कमरे में भर गए. कुछ नहीं दिख रहा है, कुछ नहीं सूझ रहा है मिश्राजी को. वे सोचते है ये परेशान क्यों नहीं हो रहा है. कितनी जगह टाईम बेटाईम दौड़ाया जाता है इसे, दौड़ जाता है. कहता नहीं कुछ भी. नहीं मांगता मदद. नहीं जोड़ता हाथ. नहीं झुकता. जैसे कि कोई मशीन हो कि बटन दबाया और चल दी. हर बार. हर बार मुस्कुराते हुए जाता है और लौट आता है. कब खाना खाता, कितना वक्त घर पर रहता. हर दम इतना तरोताजा कैसे रहता है. खिला हुआ फूल. इस उम्र में भी? मुझसे कम से कम दस साल बड़ा होगा. बल्कि ज्यादा. रिटायरमेंट के करीब है. सेवा पुस्तिका में व्यक्तिगत जानकारी पढ़ने के बाद ही जाना और जानकर दुःख के अलावा कुछ भी नहीं मिला. काका के परेशान न होने और खुश होने से जन्म लेती है मिश्राजी की पीड़ा और फिर बढ़ती जाती है.”
कहानी के प्रभावशील अंश जिन्होंने मुझे प्रभावित किया -
‘‘
काका को दफ्तर का नशा है नशा. दफ्तर के बिना चैन नहीं पड़ता काका को.
छुट्टी के दिन भी कमरों की सफाई करके ही आत्मा को शांति मिलती है‘‘
‘‘काका की तो यहीं कब्र खोदनी पडे़गी.‘‘
‘‘क्रांति तो हुई थी लेकिन अधूरी. आज भी कई हरामियो के पिल्लों को नहीं पच पाता. अभी भी पानी नहीं मिलता सबको. आज भी कई गांवों में सभी के लिए नहीं है सभी कुएं, सभी हैंडपम्प. अब तो बांट दिए पानी के लिए और तो और अब बोतल बंद पानी का जमाना आ गया. इसे हम जैसे पी नहीं सकते है तब बाबा साहब पानी के लिए लड़े थे आज भी हालात नहीं बदले है. वे ही लोग है, उन्हीं लोगों से लड़ना है. वे ही नहीं चाहते सबको मिले साफ पानी. पानी के लिए फिर लड़ना होगा. पानी के लिए अब नये अम्बेड़कर को आगे आना पड़ेगा. ‘‘अहिरवार बाबूजी गुस्से में बोलते बोलते रूके.
‘काका, सारे दफ्तर के लोग पानी पीते है तुम्हारा भरा हुआ लेकिन तुम्हारे साब और बडे़ बाबू क्यों नहीं पीते.
पानी का गिलास लेकर आये काका यह जानते हुए भी कि कुर्सी से उठ गये साब. लेकिन जीप की आवाज आने से आशा थी कि अभी गाड़ी रवाना नहीं हुई. मतलब साहब नहीं गये. पानी पिला दूं. बहुत प्यास लगी होगी. कल थूक ही निकाला था, मन तो वैसा ही था काका का, उसी मन में खयाल आया पता नहीं किस गांव जा रहे ? वहां का पानी कैसा क्या होगा ? गांव के लोग तो बिना देखे परखे सोचे समझे पीते है पानी. कितना गन्दा होता है गांव का पानी. यह काका ने दफ्तर के कांच के गिलास में साफ पानी को देखने के बाद ही जाना था. अब साब जिस गांव जा रहे वहां हैण्डपम्प होगा ? पता नहीं कब लौटे ? इतनी तेजी से आये सवाल- चिन्ता और यादे जो कदमों से सौ गुनी तेज होगी. सोचा और धोकर गिलास, भरा पानी. कांच के गिलास में भरे स्वच्छ पानी को देखा, स्वच्छ मन से. कहीं कोई गंदगी या कचरे का अंश तो नहीं ? लेकर गिलास साहब के कक्ष की तरफ चल दिए कि सामने से बड़े बाबू आये. बड़े बाबू ने पानी मांगा. बड़े बाबू को कभी नहीं पिलाया पानी. बडे़ बाबू के मुंह में पान हमेशा रहता. बड़े बाबू ने पान थूक दिया गलियारे में. ‘‘इतने साल हो गए मगर ये स्साला. समझ नहीं आती. चूना तेज कर दिया भो ------ वाले ने.‘‘
‘सर, पानी‘‘ नम्रता से ही कहा काका ने, जो इतनी मासूम थी कि चीख, गुस्सा और गाली से टकराकर नीचे गिरी और पानी की बूंद में मिल गई. मिश्राजी ने गिलास हाथ में लिया.
‘‘तू क्यों लाया रे पानी ? तेरी ड्यूटी है ? बेवकूफ ........... मक्कार अपना काम तो करता नहीं और चला आता है ---- चल भाग,यहां से ...............” गिलास फैंक दिया. कांच का गिलास सैकडों टुकड़ों में पानी से बिछड़ कर बिखर गया. कांच
के टुकड़े प्यासे हो गए या मासूम पानी की बूंदे. कुछ भी समझ नहीं
पाये काका, इस तरह से चार लोगों के बीच अपमानित किया. क्या गलती की काका ने, काका सहित कोई भी समझ नहीं पाया.
ऐन 26 जनवरी के पहले दफ्तर के सारे कमरों की सफाई करवाने के बाद भी चैन नहीं पड़ा कि स्टोर की सफाई का हुकूम दे डाला था. डाक के लिए दौड़ाना ठीक था. लेकिन बेटाईम ? सिर चकराने लगा. प्रतिवाद करना चाहा लेकिन शब्द नहीं मिले, निर्जिव हो गए काका.
“मैं मांगीलाल जी चौहान का बेटा हूं.‘‘ दफ्तर में पहुंचने पर भी पिता के साथ हुए बर्ताव को भुला नहीं पा रहा
काका का बेटा.
‘‘कौन मांगीलाल ?” उपहासात्मक रूप में ही कहा मिश्राजी ने, जानते हुए. ‘‘आपके कार्यालय के भृत्य, काका कहते है
सब.‘‘
‘‘तो‘‘
‘‘ये एपलीकेशन है‘‘
‘‘तो‘‘
‘‘तो रखिए‘‘
‘‘वह तो बिना बोले बताये भाग गया. उसकी तो डी ई स्टार्ट हो गई.‘‘
‘‘एपलीकेशन लीजिए आप.‘‘ जिन शब्दों का उपयोग चबा चबाकर कर रहे है. मिश्राजी वे नागवार लग रहे. पिता, पिता होता है. उनके बारे में इस लहजे में बात सुन नहीं पा रहा बेटा. तो भी संयत रहा.
‘‘इसकी कोई जरूरत नहीं. अपसेंट लग रही है.‘‘
‘‘एपलीकेशन लेने में क्या दिक्कत हो रही है आपको ? आप चाहे नामंजूर कर दे.‘‘
‘‘नामंजूर तो पहले ही हो गई ?‘‘
‘‘बिना एपलीकेशन ?‘‘
‘‘इसमें मेडिकल कहां लगा है ?‘‘
‘‘बाद में लगायेंगे ?‘‘
‘‘वो तो कल मार्केट में मटरगश्ती कर रहा था.‘‘
‘‘माइन्ड योर लैंग्वेज सर वो मेरे पिता हैं.‘‘
‘‘वो बीमार कहां है ?‘‘
‘‘वो वास्तव में बीमार है‘‘
‘‘तो बिस्तर पकडे़. बाजार में ----------.‘‘
‘‘आप खाम खां सलाह दे रहे है.‘‘
‘‘आप मेरा समय बर्बाद कर रहे है.‘‘
‘‘आप नियमों के तहत काम नहीं कर रहे है.‘‘
‘‘आप कौन होते है सिखाने वाले.‘
‘‘आपको एपलीकेशन तो रखनी ही पडे़गी.‘‘
‘‘ये आपका हुकुम है या आपके बाप का.‘‘
‘‘हम सबके बाप का. ये रही एपलीकेशन अब जो बने सो कर लेना.‘‘
‘‘धमकी दे रहा है तू, मेरे दफ्तर में, मेरे दफ्तर में तू धौंस दे रहा है ........ तू मुझे जान से मारेगा. सरकारी काम में बाधा डाल रहा है. कोई पुलिस को बुलाओ.‘‘ मिश्राजी की आवाज गलियारे में आ रही है. सब सुन रहे है. सुन रहे काका जो बेटे के पीछे पीछे चले आए दफ्तर. काका सुन रहे और बेटे के साथ हो रहे बर्ताव को झेल रहे, मेरे बेटे को ............ मेरे बेटे के साथ ऐसी बातें ......... धमकी......... काका के कदम मिश्राजी के कक्ष के भीतर पहुंचे.
घंटी लगातार बजती रही. मिश्राजी बजाते रहे घण्टी और चिल्लाते रहे. कर्कश घंटी के बीच मिश्राजी के गाल पर पडे़ चांटे से सुर निकल रहे.
और इस तरह कहानी का एक इंकलाबी और आशावादी अंत | आप बधाई के पात्र है |
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