जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भी मालूम नहीं होते हैं।उस घर के अंदर बाप का गला दबाने के लिए डॉन तैयार है कि बंगले पर माँ,बर्तन धोने व सफाई का काम कर जैसे तैसे जिंदा लाश में सांस फूँकती है,वो परेशान है।पति शराब के बोतल में जीवन के मायने ढूंढता है तो बेटे को जीवन के मायने ही नहीं मालूम।
अंकुश(अंकुश मसराम,(मेश्राम नहीं।दोनों सरनेम दो अर्थ वाले हैं।)ने ‘डॉन’ नाम को अपना नाम मान लिया।अंकुश को इतनों ने इतनी बार ‘’डॉन’’,बोला कि उसे लगा उसका नाम डॉन है।जिस बात को लगातार बोला बताया जाए, वो बात सच मान ली जाती हैं।ऐसे कई 'सच' को सदियों से हथियार बना या गया है। ‘सच’ नाम के नाम पर एक पहचान का सवाल हैं।उसी पहचान के भीतर जीने वाला डॉन,डॉन बनना भी नहीं चाहता हैं। उसके भीतर का मनुष्य जीना चाहता है।मदद करने के लिए अगर किसी से भी लड़ना-भिड़ना पड़े तो लड़ पड़ता हैं।तीन बेटियों के साथ पति को तलाक बोलकर अंधेरी बारिश में घर छोड़कर चली आती है,रजिया।रास्ते में उसे डराने धमकाने वाला रजिया के पति के खिलाफ डॉन खड़ा हो जाता हैं।
बेवजह घूरकर देखने वाले से डॉन पूछता है,क्यों घूर रहा है?मीठी चाय डॉन की जबान को कड़वाहट से भर देती है कि सवाल के जवाब शब्दों से नहीं मिलते।सामूहिक रूप से,एक गैंग
उस पर टूट पड़ती है कि माफी मांगे।डॉन सॉरी बोलता है कि अकेला पड़ जाता है।तब सवाल उठता है किस बात की माफी मँगवाई जा रही है?
क्या खोया?क्या पाया,इस जद्दोजहद की बजाय आँख नम होते होते आँसू निकलने लगते हैं।दिल इतना भर आता है कि रोना चाहता हूँ,जार जार, लेकिन चुप रह जाता हूँ। सार्वजनिक जीवन के इस दबाव में यह बन गया हूँ कि रोने की आवाज नहीं निकलती हैं।मेरे ऊपर जमाना इतना हावी हो जाता है कि चुपचाप,सिसकता हूँ।वो क्या है जो मुझे रुला देता है?
आपने कभी किसी के रोने की आवाज सुनी हैं?
मैं अभी भी उसी झुंड में खड़ा पाता हूँ।
झुंड के एक पात्र में परिवर्तित होने के लिए हर चेहरे,आँख उसके सपने और विवशता में लगातार अपने आपको तलाशता हूँ।इसे“अनावश्यक भावुकता” कहकर खारिज किया जा सकता है,हैं न।
माफी मांगने के बाद अब वे चाहते है कि डॉन उसके पैरों में गिर पड़े।पैर पड़कर माफी मांगे।पैर पकड़कर माफी मांगने से कलेजे को ठंडक पड़ती है कि मनुष्यता का कत्ल करने पर खुशी हासिल होती है।डॉन के हाथ माफी मांगने के लिए जुडते नहीं हैं,तो फिर उसकी रीढ़ की हड्डी कैसे झुक सकती है?और आखिरकार डॉन उसके पैर नहीं पड़ता है।
विजय(अमिताभ बच्चन)जानते है कि झोपड़पट्टी के बच्चों में हुनर है और ये टीम,उनकी बड़ी बिल्डिंग वाली अँग्रेजी सेंट जॉन कॉलेज की टीम से बेहतर हो सकती हैं।पाँच सौ रुपये देकर विजय उन बच्चों से खेलने के लिए आमंत्रित करता हैं। इस बात पर छोटा बच्चा कार्तिक, विजय की नियत पर चाकू की धार सा नुकीला सवाल करता है।पैसे देकर क्यों खेलने को बोल रहा है?बोल रहा है,तो कहीं पैसे देने के ‘वादे’ से मुकर तो नहीं जाएगा।
नियत और वादे पर सवाल करते हुए फिल्म आगे बढ़ती है और सवाल के जवाब ढूंढने के लिए तैयार करती हैं।वादों से छला हुआ समाज नियत पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
विजय इस तरह “छात्रवृति’ देता है कि एक बार वो मैदान में आकार टीम बन जाए कि उनके भीतर सीखने की भूख बढ़ जाए।जिसके पास खाने पीने के समुचित इंतजाम नहीं हैं, उसके लिए स्कूल भी बेमानी है,फिर खेल खेलना तो?खेलने से बिगड़ जाते हैं बच्चे।यही परंपरा रही है यहाँ की।और जो बिगड़ चुके हैं,उनको फुटबाल सिखाना चाहते हैं,विजय।
झोपड़पट्टी वालों के पैरों में जूते नहीं है कि फुटबाल खेला जा सके।उनका अपना ‘फुटबाल’ नहीं है फिर भी प्रैक्टिस की जाती है।परंपरा को चुनौती देना मुश्किल है कि जब राष्ट्रीय झोपड़पट्टी फुटबाल प्रतियोगिता के लिए मैदान उपलब्ध करने वाले मैदान के मालिक,स्कूल प्रबंधन कहता है,तुमने कॉलेज को झोपडपट्टी बना दिया।‘’
यह सवाल,एक बड़ा हथौड़ा बनकर सिर पर पड़ता है। सिर फूट जाता हैं। झोपड़पट्टी बना दिया अर्थात क्या बना दिया?
झोपड़पट्टी का मतलब क्या है?घर?आवास?अपराधियों की शरणगाह?क्या है,झोपड़पट्टी के मायने?पृथ्वी का यह कौन सा ग्रह हैं,जहां जीवन नहीं हैं।मनुष्य नहीं हैं? मूलभूत सुविधा नहीं हैं।
घृणा से भरे व जहर बुझे हुए इस भाव सवाल के मायनों में झोपड़पट्टी के मायने क्या हैं? बड़े लोगों के घरों के भीतर सफाई करने वाले,उनकी जूठन, गंदे बर्तन,बदबूदार दाग वाले कपड़ों को धोने वाली महिलाएँ, झोपड़पट्टी के ‘’अपराधियों’ की माँ, बहन या पत्नी होती है।बड़े लोगों के बंगले,सोसाइटी,अपार्टमेंट की सुरक्षा करने वाले ‘इन्हीं’ ‘’अपराधियों’ के समूह में से आते हैं।फिर भी तब वे किसलिए अच्छे लगते हैं?
शोषण की विरासत का ज्ञान लेकर वे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम की अर्थात देश के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए मनचाहा अश्लील,बेहूदा,अमानवीय व्यवहार कर सकते हैं कि धमका सकते हैं कि “नौकरी” से हटा दूंगा।
जैसे ही वह यह "फैसला" सुनाता है,उस वाहियात के भीतर यह अहसास होता है कि मैंने तुम्हें मौत की सजा दे दी हैं।मेरे यहॉं काम नहीं करोगे तो भूखे मर जाओगे।जबकि यह 'नौकरी’ नहीं ’बेगारी’ होती है।
बेगारी।
काम का कोई दाम नहीं।काम वाले का सम्मान नहीं।समता नहीं।शोषण तंत्र और भेदभाव का गटर हैं। वे नहीं चाहते है कि झोपड़पट्टी वाले वे भूख से मर जाए।वे चाहते हैं,उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे।सलाम करे।सामने आने पर रास्ते से हट जाए,इस तरह से हट जाये कि हटते ही उसके चेहरे पर यह भाव आ जाये कि’’इस रास्ते का उपयोग कर उसने गुनाह किया है,इसलिए वो अदब से माफी मांगने का स्वर उसके चेहरे से टपके।
मुक्ता सालवे के पिता ने 1855 में बताया था, कुछ साल पहले राजा की सवारी के सामने आ जाने से राजा को लगा था ये क्या गुनाह कर दिया?उसके कारिंदों ने बताया कि इसकी छाया पड़ जाती तो महाराज ‘अपवित्र’ हो जाते। अनिष्ट के भय के साथ वे तत्काल अस्पृश्य को जान से मार डालते हैं।
क्या इसी मानसिकता का वायरस अभी भी मौजूद है,जो लिफ्ट मे उन्हें,अपने साथ आने नहीं देना चाहता हैं?जो आज उनके घर के भीतर सीढ़ियों से जाता हैं।उसे बार बार अपने बराबर न होने का एहसास दिलाया जाता हैं।कमतरता उसके दिमाग में ठूंस दी जाती हैं,हर रोज।
ये वही है जिनकी बड़ी बिल्डिगों में दीवार पर लिखा जाता है कि कामवाली, नौकर, दूधवाला, पेपरवाला, सफाईवाला, लिफ्ट का उपयोग न करे।क्योंकि लिफ्ट का उपयोग करने से,उसके कदम से उनकी छाया से यह पवित्र पावन लिफ्ट अपवित्र हो जायेगी।
खेल का मैदान, छुट्टी के दिन, झोपड़पट्टी वालों को न मिले वरना मैदान अपवित्र हो जाएगा।ताउम्र उनकी नौकरी करने वाला विजय अपनी रिस्क पर हाथ जोड़कर भीख मांगता है। गिड़-गिड़ाने के बाद ही दिल पसीजता है, बड़े लोगों का।बड़े लोगों का दिल बड़ा होता है तभी वो वक्त लेता है,पिघलने के लिए।
पवित्र भूमि और पावन शैक्षणिक संस्था वाले,जिन्होंने खुद को बड़ा मान लिया हैं,वे बड़े दयालु है।वहॉं झोपड़पट्टी वाला ‘अलाउ’ नहीं हैं।
झोपड़पट्टी वाले अपने झोपडियो के बच्चों के खेल को देखने के लिए ’गेट’ से नहीं आ सकते है।ताला बंद हैं।इतवार के दिन स्कूल में बच्चे नहीं है,वरना झोपड़पट्टी वाले अगर उनके सामने आ जाते,मिलते/बतियाते/खेलते तो ’बड़े घरवालो’ की औलाद बिगड़ जाती।
औलाद न बिगड़े इसलिए झोपड़पट्टी वाले बच्चों से दोस्ती तो दूर की बात,उनसे बात तक करने नहीं दी जाती है।बात करते हुए पाये जाने पर अपनी ’’औलाद’को जलील करते हुए,झोपड़पट्टी वालों के खिलाफ जहर उगलते है।यह जहर सदियों से संचित है,जो बात बे बात पर बाहर निकलता है। मौका मुद्दा मिलने पर तो वे टूट ही पड़ते है।सवाल/विषय/मुद्दा कोई भी हो,वहॉं जहर के अंश अभिव्यक्त करने में नहीं चूकते है।
कहॉ चूक गये थे कि मोनिका गेडाम (रिंकू राजगुरु) अपनी पहचान को सत्यापित करने के लिए भटकती है। भटकते है पिता।दोनों निरक्षर है।‘’1848 में शूद्रों के लिए पाठशाला खोली थी ज्योतिबा फुले ने।अब राज्य के सबसे बड़े महानगर की गली में निरक्षर हैं।बच्चें अनपढ़ हैं।ज्योतिबा,तुम्हारे इंतजार में है पूरी गली।’’(अंतरदेशीय पत्र कहानी का अंश)
वे इंतजार में अभी भी हैं कि इंतजार करते करते पिता थक जाते है।हार मान लेते है पिता।पिता और मोनिका की बात, सिनेमा देखने वाले समझ जाते है लेकिन वे उस भाषा को, उसके शब्द को नहीं जानते है।वे पिता बेटी,क्या बोल रहे है?उनकी विवशता,दुनिया की किसी भी भाषा के शब्द की मोहताज नहीं है इसलिए निर्देशक नागराज मंजुले,गोंडी भाषा के अनुवाद के लिए परदे पर अक्षर डालते नहीं है।सबटाइटील नहीं देते हैं। दुख तकलीफ मोहब्बत भाषा के मोहताज नहीं होते हैं।
अक्षर के मायने कहॉं-कहॉं हो सकते है? जानते है कि अक्षर शब्द हर जगह जरूरी नहीं है।निर्देशक नागराज गोंडी,बांग्ला,मराठी सहित कई भाषाओ को बोलते हुए दिखाते हैं और उसके अनुवाद की कोशिश नहीं करते हैं।दर्शकों पर छोड़ देते हैं।कई सवाल और विचार को बिना समझाए सामने जस का तस रख देते हैं।
समझने वाले जानते है कि मोनिका को ‘पहचान पत्र,’ ’निवासी’ प्रमाण पत्र चाहिए कि वो देश की निवासी है।उसे कोई नहीं जानता हैं। किसी तीसरे के जानने से वो उसकी पहचान के लिए साइन कर देता हैं।उस न जानने वाले की कलम से पहचान सत्यापित होती है।’"जो हमें नहीं जानता,नहीं पहचानता,वही हमें सत्यापित करता है।उसी ना जाननेवाले के दस्तख़त से हमें जाना जाता है।कभी-कभी लगता है कि ये कौन हैं, कहाँ से आए हैं, जिनके पेन से ही तय होती है हमारी पहचान?"(कहानी ‘सत्यापित’ का अंश)
विजय के घर आकर,वो छोटा बच्चा कार्तिक कहता है कि इतना बड़ा घर उसने कभी देखा नहीं। उसके भीतर का आश्चर्य इतना बड़ा हो जाता है कि इस देश के कथित मध्यवर्ग के बड़े बंगले की औलाद अगर अंबानी के’’एंटेलिया’मे जाकर उनका घर देखेगी तो इतने ही बड़े बल्कि इससे भी अधिक आश्चर्य से भर जायेगी। जबकि देखने वालों की निगाह मे विजय सर का घर,’बड़ा’ नहीं है,लेकिन उस बच्चे की निगाह से देखिए,सोचिए,वो कितना बड़ा घर हैं।
आप किस जगह खड़े होकर ’’झुंड" देख रहे है?सोच रहें हैं? आपको अपनी लोकेशन सेट करना पड़ेगी,अगर आपके भीतर संवेदनशीलता नहीं है,तो।मोबाइल में कंप्यूटर में आपको आपकी ’लोकेशन’ बताना ही होती है ताकि आप ’सही’ जगह पहुच जाये, लेकिन ’झुड’ में आपकी 'लोकेशन’ ’सेट’ नहीं हो रहा है तो आप चिंता करने लगते है कि नागराज क्या दिखा रहें है?क्या सुना रहे है?
अम्बेडकर जयंती को कैसे मनाना चाहिए? झोपड़पट्टी वाले अपने मनुष्य होने का,एक संप्रभु देश का नागरिक के रूप में ’सार्वजनिक’ पहचान हासिल करने के लिए ’सार्वजनिक सड़क’ पर निकलते है।वो चैत्यभूमि, दीक्षाभूमि,जन्मस्थली, पर जाते है कि वो ’एक दिन’ उस सड़क पर अपने मानवीय अधिकार को अभिव्यक्त करते हैं।मनुष्य होने का अहसास,सिर उठाकर जीने की आस को सबके सामने रखते हैं।
’इस तरह’ सामूहिक रूप् से उनका होना/जीना/रहना,उस विषमता,शोषण और भेदभाव की मानसिकता वाले ज्ञानी से लेकर तमाम तरह के लोगों को नागवार लगता है।क्यों?
क्योंकि सड़क पर जाम लगता है/गंदगी फैलती है/ऑफिस जाने में देर होती है/कि ’कानफोडू’ आवाज से परेशानी होती है।यह तर्क अविवादित तब तक है जब तक कि साल भर किसी वीआईपी/नेता/अन्य के आगमन से लेकर किसी बिगडैल परिवार की औलाद की शादी समारोह से, किसी धन पशु के द्वारा बड़े-बड़े होटल/प्रांगण/मैरिज गार्डन में रात भर ’कानफोडू’शोर सुनने के बाद भी क्या ‘इतनी ही’, ‘ऐसी ही’ ’घृणा’आपके भीतर आती है? पनपती है?बढ़ती है?
सभी जगह डीजे लाउड स्पीकर प्रतिबंधित करने का विचार क्यों नहीं आता हैं?
निर्देशक नागराज मंजुले डीजे का प्रतिपक्ष रचते हैं।किराना वाला चन्दा देने से इसलिए इंकार करता हैं कि अंबेडकर जयंती पर डीजे बजाएंगे।वो बाद में बड़ी रकम विजय को खेल के लिए देता हैं.
नागराज दृश्य और संवाद से इस सोच मानसिकता पर सवाल खड़े करते है कि ढपला बजता है।fendri में जबया ढपला बजाता है, नागराज फिल्म प्रदर्शन के पहले दिन पूणे में बजाते है कि मनुष्य जीवन जीने के लिए बजाते है।’’दोस्ती बैंड नं0 1’’ की दुकान पर प्रैक्टिस करता हुआ बजाता हैं,बस तुम ही हो,तुम ही हो मेरी जिंदगी।।’’ सुर और बैंड का नाम प्रतिकात्मक संसार रचता है।
उड़ान की खबर सुनकर अंकुश अपने साथियों के साथ खुशी दौड़ लगाता हैं। कुछ हासिल होने की दौड़ दीक्षा भूमि के सामने से होकर गुजरती हैं।
उड़ान भरता है विमान कि नजर आता है,’’crossing compound wall is strictly prohibited’उस तरह की ‘’दीवार’’ को ढहाने की बात विजय, न्यायालय में आदरणीय जज महोदया से करते है।उस दीवार को पार रहने वालों को पता नहीं हैं कि झोपड़पट्टी है और उसके भीतर भी जीवन है।प्रेम है।मनुष्य है।वो आर्थिक सक्षम जीवन, मानवीय गरिमा और सम्मान के साथ जीना चाहते है। उसी दीवार के पार ’कचरा’ फेंकने का दृश्य दिखता है तो लगता है,उस पार के लोग, इधर ’’कचरा’ फेंकने पर न शर्म महसूस करते है न उनमें अपराध भावना आती हैं।वे इसे बेहद सहजता से अपना अधिकार मान लेता है,झोपड़पट्टी के पास या सार्वजनिक जगह पर कचरा फेंकने के लिए वे आजाद है।
सड़क पर, किसी कोने पर फेंके जाने वाले ’कचरे’ को हटाने के लिए एक कौम की औरतें रातभर सफाई करती है।रातभर सड़क पर रहती है।रातभर अकेली, जीवन जीती है। रातभर की सफाई के बाद, ’स्वच्छता सर्वेक्षण’ नम्बर देता है। और लोग कहते है,’फलाने’शहर की जनता कितनी सफाई पसंद है कि उनको रात की हकीकत पता ही नहीं है। जिन्हें हकीकत पता है, वे कहते है,ये ते उनका ’काम’है।इसके बदले में ’दाम’मिलता है।तो कौन सा बड़ा तीर मारा है।
अपने बच्चों को,परिवार को हर रात अकेले छोड़कर सड़क पर आने वालों के ’काम’ की ’अहमियत’ अगर आप आंक नहीं पा रहे है,तो ’झुंड’ आपके लिए नहीं है।
झुंड देश के बड़े समाज के जीवन का नंगा सच है।कोर्ट में विजय कहते है,’’सदियों से बहिष्कृत कर रखा हैं।जन्म से कोई अपराधी नही होता।।।।।
‘’’दीवार के पार बहुत बड़ा भारत रहता है।उसे हम नही जानते।’’
‘’ये जिंदगी की समस्या से भाग रहे है।’’
‘’सत्या पर पाइप तोड़ने का इल्जाम है।चार दिन से पीने का पानी नही आ रहा था।
।।।क्या जीना अपराध है।’’
बेहद छोटे नुकीले संवाद से फिल्म समता का दर्शन सामने रखती हैं,जिसमें बंधुत्व की भावना की मांग होती हैं।
’’दुनिया ने हमको रोज देखा फिर भी अनदेखा किया है, गाया जाता हैं तो झुंड के भीतर से शब्द,संगीत से सनकर बाहर निकलते है।सना हुआ और आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता है कि ऑंखों के भीतर से आंसू आते है और याद आता है,वो मासूम कार्तिक जो सवाल करता है,’’भारत,मतलब?
कार्तिक,वो मासूम लड़का,जवाब की तलाश में ताकता रहता है,बाकि हंसते रहते है लेकिन जवाब किसी के पास नहीं होता है।और आखरी में जवाब आता है,भारत मतलब अपना गड्डी गोदाम। यह देश झोड़पट्टी वालों का हैं। इस दृश्य में नागराज इतिहास बताते हैं।विविध धर्म,जाति,भाषा बिना बताए चले आते हैं।
झुंड फिल्म का नायक,महानायक या डॉन न होकर लोकेशन है।जगह हैं।झोपड़पट्टी हैं।घटनाए हैं।परिस्थितियाँ हैं।भूख हैं।अभाव हैं।सपने हैं।हसरत हैं।अवसर की तलाश हैं।मोहब्बत हैं। दोस्ती हैं। फिल्म में वे दृश्य हैं जो कविता की तरह परदे पर आते हैं और दिमाग में कोलाहल मचा देते हैं।इस दौरान अजय-अतुल का संगीत,गीत की हकीकत को ताल देते हैं कि विपिन का रैप सांग जीवन कि विडंबना,विद्रूपता के बीच संघर्ष और कुछ कर गुजरने का आव्हान करता हैं।
झोपड़पट्टी के बच्चों का अभिनय ‘झुंड’ के माध्यम से परदे पर मुखरता से आता हैं।वे अपने अनगढ़ रूप में आकर सारे के सारे छा जाते हैं।हँसाते हैं,रुलाते हैं और तमाम सवाल सोचने के लिए छोड़ जाते हैं।'दिल खुश,फेफड़े उदास कहने वाला बच्चा कहता हैं,आज तक किसी ने पूछा ही नहीं,तू कैसा हैं?
आपने पूछा किसी से पूछा?
=====
कैलाश वानखेडे।
दोनों कहानियाँ,’सत्यापन’ कहानी संकलन में