Saturday, June 21, 2014

अरुणेश शुक्ला,अकार-३८ में

कहानी संग्रह 'सत्यापन' की समीक्षा अरुणेश शुक्ल की ''अकार'' के अंक में

आज की हिन्दी कहानी पर यह सवाल लगातार खड़ा किया जाता रहा है कि इनमें प्रतिबद्धता का अभाव है । किन्तु यह सवाल हमारे समय के आधे सच को ही व्यक्त करता है । कारण यह नहीं है कि आज की हिन्दी कहानी में प्रतिबद्धता नहीं है, बल्कि सच यह है कि अब कहानी में उन अर्थों में प्रतिबद्धता कम है जिन खास मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के टर्म में हम प्रतिबद्धता को समझने के अभ्यस्त रहे हैं । अब लेखकों के यहाँ प्रतिबद्धता के अलग-अलग फार्म हैं । कहीं यह स्त्री प्रतिबद्धता के रूप में है तो कहीं दलित या आदिवासी । कहीं वह मार्क्सवादी प्रतिबद्धता है तो कहीं लोक सामान्य जीवन के प्रति है । प्रतिबद्धता खत्म नहीं हुई है, बस उसमें स्वरूपगत परिवर्तन हुआ है। कैलाश वानखेड़े, अल्पना मिश्र और भालचंद्र जोशी ऐसे ही कथाकार हैं जिनकी कहानियाँ प्रतिबद्धता के अलग-अलग स्वरूपों को हमारे सामने लाती हैं ।
कैलाश वानखड़े की कहानियां के आज के युवा कथा परिदृश्य में एक अलग तरह का वैचारिक व रचनात्मक हस्तक्षेप करती हैं । 'सत्यापन' कहानी संग्रह की तकरीबन सभी कहानियाँ इस ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना में दलितों के अपनी इज्जतदार सामाजिक अस्मिता के सत्यापन के जंग की कहानियां हैं, उस अस्मिता को पूरी ताकत से स्थापित करने की कहानियाँ हैं । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि यह 'सत्यापन' ब्राह्मणवादी शासनानुमोदित परम्परा व दृष्टि से नहीं बल्कि अम्बेडकरी परम्परा व संवैधानिक पहचान तथा अधिकारी के द्वारा है । संग्रह की पहली ही कहानी 'सत्यापित' के द्धारा कैलाश यह बता देते हैं कि वर्तमान सामाजिक पादानुक्रम में जहाँ दलित सबसे निचले पायदान पर हैं, और जहां उनकी पहचान को जानबूझकर स्वीकार नहीं किया जा रहा है, दलितों को उनके अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं, वहाँ सामाजिक न्याय हासिल करने व अपनी 'सामूहिक सामाजिक अस्मिता' को स्थापित सत्यापित करने हेतु संगठित होकर संघर्ष करना ही एकमात्र रास्ता है । भाऊ साहब इंगले के साथ कहानी के अंत में लोगों की तरफ हाथ बढ़ाने का आमंत्रण संगठित होकर संघर्ष करने की तरफ ही संकेत करता है । अनिवार्य तौर पर इस पूरी कहानी, बल्कि संग्रह की अन्य कहानियों में भी, बाबा साहब की यह उक्ति शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो, कभी सीधे तौर पर तो कभी अंडरटोन में लगातार चलती रहती है । तुम लोग, घंटी, अंतर्देशीय पत्र, महू, जैसी कहानियों में इस सूत्र वाक्य की आवृत्ति लगातार सुनी जा सकती है। कैलाश अपनी कहानियों में इस बात को सप्रमाण बड़ी शिद्दत के साथ बार-बार चित्रित करते हैं कि इस देश में दलितों के लिये आजादी के बाद से अब तक पचास-साठ सालों (आवाज आती है पांच हजार सालों में) कुछ भी नहीं बदला है । दलितों की औकात आज भी उनकी जाति से तय होती है, अब भी इस व्यवस्था में वे 'तुम लोग' शुडू हैं और आज भी इस देश में दलित अपनी सम्मानजनक नागरिकता खोज रहे हैं। इसलिये कैलाश लिखते हैं - नहीं बदला कुछ भी 1947 कहो या 2010। यह सही भी है कि दलितों के लिये इस देश में प्राय: कुछ नहीं बदला है, लेकिन एक वर्ग है जिसमें जरूर बदलाव हुआ है, वह हैं दलित खुद । कैलाश की कहानियाँ इस बदलाव को नोट करती हैं । अब दलित अपने अधिकार, अस्मिता और सामाजिक न्याय के प्रति यादा सचेत हुआ है । वह इस पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी सामाजिक संरचना की क्रूरताओं को उसके पूरे छल-छद्म के साथ समझ रहा है । इसलिये वह अपनी पूरी शासन अनुमोदित पारम्परिक पहचान को ख़ारिज कर, उस पहचान से अपना रिश्ता जोड़ रहा है, अपनी अस्मिता स्थापित कर रहा है, जो उसे अपने संघर्षों, संविधान व हिन्दू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म को अपनाकर बाबा साहब ने दी है ।
दलित वर्ग न सिर्फ उसे पहचान रहा है बल्कि उस अस्मिता के सामाजिक स्वीकरण हेतु लड़ भी रहा है । भाऊसाहब इंगले का यह कथन, ''महारवाड़ा'' नी है हमारे गाँव में, पेले था अब नी है । अब तो बौद्ध ही है ।'' दरअसल यह वाक्य वर्चस्वशाली ब्राह्मण परम्परा और अम्बेडकरी परम्परा के संघर्ष को चित्रित करता है । जहाँ एक तरह ब्राह्मणवादी परम्परा जानते हुए भी बौद्धवाड़ा को स्वीकार नहीं करना चाहती, उसके अस्तित्व को नहीं मान्यता देना चाहती, दूसरी तरफ दलित या कि अम्बेडकरी परम्परा बौद्धवाड़ा को मान्यता दिलाने हेतु संघर्षरत है । दरअसल शातिर ब्राह्मणी परम्परा यह जानती है कि जिन बौद्धों को, उस पूरी परम्परा को इस देश से उसने अपने हितों हेतु मिटा दिया, उसका फिर से स्थापित होना उसके लिये कितना खतरनाक हो सकता है । जानकर भी अनजान बने रहना, मान्यता न देना, सामाजिक उपेक्षा का भाव, यह सब ब्राह्मणवादी परम्परा के वे हथियार हैं जिनके सहारे आज तक वे वर्चस्व कायम किये हुए हैं। भाऊसाहब इंगले महारवाड़ा की जगह जब बौद्धवाड़ा लिखाते हैं और न लिखने पर शिकायत करते हैं, तो वे पूरी वर्चस्वशाली परम्परा को चुनौती देते हैं । दरअसल महारवाड़ा से बौद्धवाड़ा सिर्फ नाम का रूपान्तर या शाब्दिक रूपान्तरण नहीं है बल्कि एक पूरी जाति का सामूहिक रूपान्तरण है, एक हिंसक व्यवस्था से एक यादा मानवीय व्यवस्था या धर्म में समानता व इज्जत के लिये, और इसके पीछे बाबा साहब के नेतृत्व में एक लम्बा प्रक्रियागत संघर्ष रहा है । कैलाश वानखड़े शब्दों की ताकत जानते हैं। 'शब्दों की मार कितनी खतरनाक होती है, यह वही जान सकता है जिसने सही हो शब्दों से प्रताड़ना, जिसके झुलस गए हों शब्दों की आग से तमाम सपने । शब्दों, तुम प्रताड़ना और पीड़ा के लिये क्यों हथियार बनते हो?' शब्दों की इस भूमिका को इस तरह भी समझा जा सकता है कि महारवाड़ा में जहाँ जातिसूचक अपमान और तिरस्कार का भाव निहित है, वहीं बौद्धवाड़ा में समता और सम्मान का । शब्दों को ही हथियार बनाकर ब्राह्मण परम्परा ने दलित विरोधी तमाम ग्रंथ लिखे व एक ऐसी ज्ञान परम्परा निर्मित की जिसने पाँच हजार सालों में दलितों का मानसिक अनुकूलन, इस व्यवस्था में इस तरह कर दिया, कि वे स्वयं ही अपने को निम्न और ब्राह्मण को उच्च मानने लगे । यहां तक कि अपनी विपन्नता, समाजिक तिरस्कार के लिये भी खुद को ही दोषी मानने लगे । कैलाश अपनी कहानियों में पूरी ब्राह्मणवादी ज्ञान परम्परा का हिंसक और क्रूर चेहरा उद्धाटित करते चलते हैं । वह यह दिखाते हैं कि शब्दों के भीतर के अर्थ और ट्रीटमेंट में इस परम्परा ने कितनी हिंसा छुपा रखी है। 'मछली जल की रानी है, हाथ लगाओ डर जाती है, बाहर निकालो मर जाती है' कविता पर स्कूल में हंसना सिखाया जाता है । बिन पानी मरती मछली पर एक क्रूर परम्परा का अट्टहास, जबकि मार्मिक कविता पर हंसना नहीं बल्कि रोना चाहिये क्योंकि कितनी मछलियां बिना पानी के मर जाती हैं (कितने दलित सामाजिक अपमान से)। दलितों का कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जो कि कटु शब्दों से भरा न हो । इन शब्दों को सुनकर कैलाश 'स्कालरशिप' में लिखते हैं कि 'शब्दों के प्रहार कान सुनता, चेहरा उदास हो जाता । मन छटपटाने लगता, गोया कोई मछली पानी से निकालकर तपती धूप में रख दी गई हो । पढ़ाने का यह तरीका क्या मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण है या फिर इसकी जड़ संस्कृति की किसी अंधेरी गुफा में, रोशनी का पैगाम देने का दावा करने वाली की चोटी में ।'
'सत्यापन' की कहानियों में इस वर्चस्ववादी व्यवस्था के एक-एक अंग का क्रिटीक रचा है कैलाश ने । ज्ञान परम्परा, शिक्षण पद्धति, हिन्दू धर्म, सरकारी दफ्तरों में घुली पड़ी ब्राह्मणवादी मानसिकता, इन सबको संग्रह की कहानियाँ बहुत ही विश्वसनीयता और शिद्दत से हमारे सामने लाती हैं । कैलाश उन दलित लेखकों में हैं जो ब्राह्मणवाद और बाजारवाद के गठजोड़ को ठीक तरीके से देख पा रहा हैं, समझ पा रहे हैं । इतना ही नहीं, वह इस बात से भी चिन्तित हैं कि कहीं यह गठजोड़ उनके भीतर भी न पसर जाए। 'विज्ञापन में बाइक को औरत के शरीर में तब्दील होते हुए देखा था । देखा था औरत पर सवारी ... विरासत में मिली मानसिकता को चमचमाती हुई गाड़ी के साथ दिल-दिमाग में डाल दिया गया है । यह वही सिखाता है न कि औरत की सवारी करो, उस पर चढ़ो, उसे चलाओ ... मनु को बाजार ने अपना लिया ... भुना लिया और फिर नरेश खुद से सवाल करता है, प्रज्ञा को मैं चलाना चाहता हूँ, कहीं मेरे भीतर तो नहीं हो मनु महाराज?' वस्तुत: कैलाश की कहानियों के पुरुष पात्र अनावश्यक पौरुष गर्व से भरे नहीं है बल्कि स्त्री सम्बन्धी कैलाश का दृष्टिकोण उनकी कहानियों को एक नई ऊँचाई पर ले जाता है । उनकी कहानियों की स्त्री पात्र, वह चाहे माँ, चाची, प्रेमिका या पत्नी किसी भी रूप में हो, शिक्षा को लेकर सजग है । चाहे 'अंतर्देशीय पत्र' की माँ, हो या 'तुम लोग' की पत्नी रत्न प्रभा, सब अपने बच्चों को पढ़ाने को लेकर प्रतिबद्ध हैं । रत्न प्रभा खुद भी पढ़ी है और 'महू' की प्रज्ञा तो वर्तमान ब्राह्मणवादी उच्च शिक्षा व्यवस्था को कायदे से हमारे सामने अनावृत्त करती ही है । प्रज्ञा बहुत ही मुखर है । वह संस्थाओं में दलित छात्रों द्वारा किए जा रहे आत्महत्या से लेकर आरक्षण, शुडू कहे जाने, आर्थिक विपन्नता आदि तमाम चीज़ों पर खुलकर अपनी राय रखती है। वह एक ऐसी दलित शिक्षित युवा स्त्री पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है जो अपनी शर्तो पर, अपनी मर्जी से जीना चाहती है । सिर्फ पत्नी, प्रेमिका या बॉर्बी डॉल बनकर जीवन नष्ट नहीं करना चाहती । वह नौकरी करना तो चाहती है लेकिन सिर्फ एक अदद घर चलाने के लिये, उसमें डूबने या अय्याशी करने अथवा मशीन बनने के लिये नहीं । वह प्रेम भी डूबकर करना चाहती है, खुद को भुलाकर , लेकिन साथ ही शर्त यह कि वह भी भूले। 'चाहती हूँ लोगों को, बच्चों को बताना खूब पढ़ो, पढ़ो कि इतिहास में क्या दर्ज हैं? पढ़ो कि समाज के ढांचे का निर्माण कैसे हुआ? कैसे बना अर्थतंत्र? क्यों है हमारी गली में गरीबी का बसेरा? सवालों के साथ गली-गली जाना चाहती हूँ । चाहती हूँ मेरे हाथ में हो हाथ जो चले साथ-साथ । प्रज्ञा दोहरे सामाजिक परिवर्तन में सक्रिय भूमिका निभाना चाहती है, वह चाहती है कि दलित बच्चे, दलित इतिहास, परम्परा, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र से वाकिफ हों, उनकी निर्मित प्रक्रिया समझें, तभी वह गरीबी और तिरस्कार के कारणों को जान पायेंगे और इस प्रकार वह सामाजिक न्याय हेतु लड़े जा रहे महान संघर्ष को मजबूत कर पायेंगे । उसकी इस पूरी बात को समझते हुए ही आगे कहानी में नरेश कहता है 'हमें ही बनना होगा अपना दोस्त, अपना प्रोफेसर । क्योंकि ब्राह्मणवादी मानसिकता के प्रोफेसर तो दलित छात्रों की हत्यायें करते हैं और उन्हें आत्महत्या का नाम देते हैं' । प्रज्ञा लिखना चाहती है, क्योंकि वह भी शब्दों की ताकत जानती है । व्यवस्था लेखन से, सर्जनात्मकता से डरती है । 'उसका आना' कहानी में अपनी बहू के कविता लिखने से जैसे उसका ससुर डर जाता है। प्रज्ञा दलित है और स्त्री भी । कैलाश के कहानी कला और वैचारिक दृष्टि की बड़ी विशेषता यह है कि वह दुखों की तरफ देखते हुए एक संगठित प्रतिरोध की प्रस्तावना तैयार करते हैं । वह यह लिखते हैं कि ब्राह्मण या उच्चवर्गीय स्त्रियाँ सामाजिक संरचना में अस्पृश्यों के बराबर हैं । इसीलिये यह पितृसत्तात्मक, ब्राह्मणवादी, वर्चस्वशाली व्यवस्था उषा किरण और प्रज्ञा दोहरे, दोनों के लिखने व बोलने से कहीं न कहीं समान रूप से डरती है, क्योंकि कविता, शिक्षा, ज्ञान यह सब व्यक्ति को खड़े होने की ताकत देते हैं । स्त्री संदर्भ में कैलाश की निगाह सिर्फ दलित स्त्री के जीवन तक ही सीमित नहीं है, वह व्यापक स्त्री सरोकारों से गहरे जुड़े हैं । इसीलिये 'उसका आना' कहानी में वह इस विडम्बना को बड़ी खूबसूरत कलात्मकता से चित्रित करते हैं कि 'अखबार में कन्या भ्रूण हत्या समस्या पर कार्यशाला सम्बन्धी डाक्युमेंट्री के प्रदर्शन की तस्वीर वही छपी है, जहाँ मुन्नी की बदनामी, शीला की जवानी के नाम से इसके उसके पोज छपे होते हैं, जिनका नाम मालूम नहीं लेकिन लोग बदन देखते हैं, फिर वह शर्लिन चोपड़ा, पूनम पांडेय, याना गुप्ता या माधुरी दीक्षित कोई हो' अर्थात आज के इस बाजारवादी-ब्राह्मणवादी गठजोड़ के समय में स्त्री की कोई जाति नहीं । (वह कभी थी भी नहीं)। वह सिर्फ देह है जिस पर पुरुषों की लोलुप नजरों होती हैं । कन्या बचाकर यह लोग उन्हें माधुरी या याना गुप्ता बनाकर उनका भी ऐसी शोषण व भोग करेंगे । स्त्री का स्त्री होना गुनाह-सा है इस समाज में, क्योंकि उसके रचने के लिये भी दरवाजे पुरुष ही खोलता है । उसके लिये स्पेस भी वही तय करता है कि क्या लिखना, क्या नहीं, कितना लिखना, किससे मिलना, किसकी तारीफ सुनना आदि । और यदि कहीं उसकी सर्जना उसकी यौनता के बंधन ढीले करने लगे तो फिर उसके रचने पर पांबदी । नहीं मानी तो चरित्रहीन और पता नहीं क्या-क्या। इन्हीं व्यापाक कारणों से कैलाश जिस प्रतिरोध की प्रस्तावना रचते हैं, उसमें दलित, दलित स्त्री और स्त्री चाहे वह किसी भी जाति की हो, के सामूहिक प्रतिरोध व संघर्ष की डिमांड है । इसीलिये 'महू' कहानी में प्रज्ञा का विश्वास कि 'मेरे हाथ में वह हाथ हो जो साथ-साथ चले' यह ध्वनित करता है कि दलित नारीवाद का अलग से उभार या जरूरत दलित स्त्री की इच्छाओं, स्वप्नों व क्षमताओं को ठीक-ठीक दलित पुरुषों द्वारा न समझे जाने के कारण हुआ है। अन्यथा दलित स्त्रियाँ भी सामाजिक न्याय की इस लड़ाई में दलित पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती हैं । इस बात को समझते हुए ही नरेश प्रज्ञा को चलाना नहीं चाहता बल्कि उसके साथ-साथ चलने का संकल्प लेता है। जाहिर तौर पर यह गठजोड़ नरेश, प्रज्ञा, प्रकाश, उषाकिरण तक बनता है । टुकड़ों में लड़ाई व्यवस्था को तोड़ नहीं सकती सामूहिक प्रतिरोध ही एकमात्र रास्ता है । लेकिन इस संघर्ष का रास्ता किसी 'तहरीर चौक' या 'जंतर-मंतर' से न गुजरकर महू या बौद्धवाड़ा से गुजरेगा। अपनी अम्बेडकरी परम्परा व देशज प्रतीकों से जुड़कर ।
कैलाश वानखेड़े की कहानियां एक नये सौंदर्य शास्त्र की स्थापना की मांग करती हैं। ब्राह्मणवादी पारम्परिक सौंदर्यशास्त्र से इतर एक ऐसे दलित सौन्दर्यशास्त्र की, जहाँ पत्नी का रंग मेकअप से नहीं चूल्हे की आंच से स्वर्णिम आभा पाता है । कैलाश जानते हैं कि ब्राह्मणवादी मानदंडों से न तो दलित जीवन को समझा जा सकता है और न ही दलित साहित्य व सौन्दर्य को । इसलिये वह कहते हैं तिवारी से, 'हम नहीं कह सकते वैसा का वैसा जैसे तुम सोचते हो । हम नहीं मान सकते हैं कि जो तुम कहते हो वह सच है । तुम्हें लगता है हम भी तुम्हारी तरह सोचें और कहें । अगर न कह पायें तो तुम कहते हो हमारे में सौन्दर्यबोध नहीं'। दरअसल दलित सौन्दर्य शास्त्र ब्राह्मणवाद का नकार करते हुए अभाव व सामाजिक तिरस्कार से उपजे गुस्से की भूमि पर निर्मित है । वहाँ बारिश के मायने सुख नहीं, दुख है ,क्योंकि उसके साथ घर गिरने का डर भी चला आता है, इसलिये वह दलितों के लिये सुन्दर नहीं है । दलित सौन्दर्य शास्त्र प्रश्न खड़े करने व सामाजिक न्याय स्थापित करने का सौन्दर्य शास्त्र है जिसकी इजाज् ात ब्राह्मणवादी धारा में नहीं है । कैलाश एक आल्टरनेटिव सौन्दर्यशास्त्र की पीठिका अपनी कहानियों में तैयार करते हैं जिसकी ठीक समझ उनकी कहानियों को भी ठीक से समझने हेतु जरूरी है । कैलाश की कहानियों में दलित उत्पीड़न के तमाम रूप चित्रित हैं, यह भी कि एक रणनीति के तहत उन्हें हमेशा उनकी औकात या जाति याद दिलाई जाती है या यह भी कि किस तरह से शोषण के हथियार, उत्पीड़न की शब्दावली बदलती रहती है किन्तु शोषण नहीं बदलता, चाहे वह अस्पृश्य, चंडाल कहकर हो या 'शुडू' कहकर । इतना ही नहीं उनकी कहानियाँ हमें यह भी बताती हैं कि जिस झंडे को हम गर्व से सलामी देते हैं, उस पर गर्व करने व सलामी देने लायक बनाने का काम दलितों ने तमाम कंटरीले पथरीले रास्तों पर चलकर, उसे साफ करके अपने श्रम से बनाया है । किन्तु क्रूर विडम्बना यह है कि उन्हें ही समाज में वाजिब सम्मान नहीं मिलता है। मंत्री, बीडीओ जैसे लोग उनके श्रम का उपभोग कर रहे हैं। जहाँ मार्मिक विडम्बना, दारुण स्थितिओं का विश्वसनीय चित्रण कैलाश के कहानियों की उपलब्धियाँ हैं वहीं उनकी सबसे बड़ी सफलता वह ताकत है जो वह अपने पात्रों को कहानियों में अन्याय व शोषण का प्रतिकार करने हेतु प्रदान करते हैं । इसीलिये मास्टर को मुक्के मारना या मिश्रा को चांटा या ग्राहक को प्रकाश द्वारा पीटा जाना, ब्राह्मणवादी अदृश्य वर्चस्व व शोषण की पहचान करने वाले इन पात्रों पर पड़ा हर चांटा इस व्यवस्था के गाल पर मारा गया चांटा है जो इतिहास-परम्परा के गाल से गुजरकर कुछ बेहतर होने की उम्मीद दिलाता है ।
कैलाश की कहानियां अस्मिता लेखन की उस अनावश्यक चीख चिल्लाहट, गाली-गलौच के दबाव व आक्रामकता से मुक्त हैं जो हालिया दिनों में इस लेखन की पहचान बन गया है । इसके उलट कैलाश के पास सधी हुई भाषा, ठोस वैचारिकता व कहानी कहने का वह हुनर है जो अपनी अपनी समूची बुनावट में ही स्थापित साहित्यिक मानकों के लिये चुनौती है । सलीके से बात कहने के हुनर का तो क्या कहना?


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अरुणेश शुक्ल

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