Sunday, October 27, 2013

भाकर के भीतर की आग

तवे से बहुत छोटी सी दिखती है आग ...
लहराती हुई लगाकर पूरी ताकत ,पकाती है भाकर को
मोड़कर भी दो हिस्से नहीं होती
उसकी परत टूट नहीं पाती
जिसे कटोरी के पानी से बारबार चिकना बनाया जाता था
कि न चिपके हाथ में
न चिपक बच्चे गोद में
कि पकना ही है ज्वार की भाकर की तरह
जिसमें रहती है आग तवे से बिछड़ने के बाद भी
आग बनी रहे अपने भीतर ,माँ यही चाहती थी .




(संजीव तिवारी की वाल से साभार फोटो.इसे देखकर लिखा है ,कुछ तो भी )

Monday, October 14, 2013

एक गुमशुदा लफ्ज

उस नगर में वफ़ा एक गुमशुदा लफ्ज है
मिलना ,शब्दकोष से सजायाफ्ता होकर बेदखल हो चुका है
वक्त ,नहीं है लेकिन वक्त के नाम से दहशतजदा है वह
दिमाग के भीतर से हूक लगातार  उठती है
बेसबब
बेवजह
कहकर उसे डस्टबिन के कीटाणुओं के हवाले किया जाता है .
सड जाए
गल जाए
हो जाए गायब
ऐसी कोई ख्वाहिश नहीं होती
लेकिन उसीके लिए चली जाती है याद .
याद
याद ''का जो अर्थ बताया नहीं गया
न समझाया गया
और तो और कभी भी शब्दकोष में उसकी तलाश नहीं की गई
वही हरदम आगे आगे रहता है
..
वक्त बदला नहीं है
कैलेण्डर ,दिल बहलाने के लिए फडफडाता है
पिंजरे में बंद लव बर्ड्स की तरह
उसे कितना भी उडाओ नही उडती
उड़ने की कोशिश में मारी जाती है
,जिस तरह समय को ..

अभी कल ही बात है
गिने गए अठावन
जो मारे गए थे अँधेरी रात में अपने घरों से निकालकर
 उनकी लाश थी
जलाया गया था
समाचार के साथ फोटो भी थे

लेकिन हत्यारा कोई नहीं

यह तो शुक्र है कि लाशों की लक्षमनपुर बाथे में गिनती हो गई
खैरलांजी में कितने मरे ?
तुम्हें नहीं पता

खैर जैसे तुम तय नहीं कर पाती हो
वैसे ही समझ नहीं पाता हूँ कि
कितना बदल गया वक्त
कितना हुआ विकास
वर्णव्यवस्था से समझ नहीं पाते अब भेद को
जैसे समझना मुश्किल होता है कि
आखिर प्यार क्या होता है

जिस वक्त तुम प्यार को परिभाषित कर लोगी
उसी दिन वर्ण व्यवस्था के मायने
समझ में आ जायेंगे
जैसे मिट्टी का रंग
हवा में घुली खुशबू
तलवे में कंकड़ की चुभन
तवे पर गर्म रोटी के पकने का अहसास
पेट के साथ मन भरने की बात ....

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को   भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...