Tuesday, March 12, 2013

सत्यापित

   कहानी ''सत्यापित ''को सुना जा सकता है ,रेडियों की दुनिया के सरताज ,युनूस खान की आवाज में .यहाँ क्लिक कीजिये .....http://katha-paath.blogspot.in/2014/02/blog-post_9.html
                                                                                                                                        -कैलाश वानखेड़े

अभी इंतजार में हूँ कि मेरी बारी आये और मैं अपने आपको सत्यापित करवाऊ .मुझे सत्यापित करवाना है अपना फोटो. कोई भी मेरे चेहरे को पढ़कर अंदाज लगा सकता है कि मैं अभी परेशानी में हूँअब और इंतजार नहीं कर सकता. मेरे पास धैर्य था, मेरे पास समय था, मेरे पास सपने थे, मेरे पास मैं था, अब मेरे पास आवेदन पत्र पर वह फोटो है जिसे दुःख-सुख का अनुभव नहीं होता. फोटो पर पड़ने वाली सील और होने वाले हस्ताक्षर से प्रमाणित होने वाला था मेरा वजूद. सत्यापन  करने वाली सील अक्सर चेहरा बिगाड़ देती है और रही-सही कसर लम्बे चौड़े हस्ताक्षर पूरे कर देते. चेहरा पहचानना मुश्किल हो जाता है.उसी को प्रमाणित मानते है.टहलना नहीं चाहता हूँ .थक गया हूँ बुरी तरह. भूख-प्यास मेरे दिमाग से रुखसत हो चुकी और अब गुस्सा सवार हो रहा. गर्म लोहा, जब तक आग पर रहता लाल दिखता, आग के हटते ही काला दिखने लगता जिसने लोहे को तपते हुए नहीं देखा वह नहीं जान सकता कि अपने मूल रंग में लौटता लोहा कितना गर्म होता होगा. अपनी उम्मीद को उसी में तपाये हुए इंतजार में हूं .

महू

कहानी
                                                                                                       -कैलाश वानखेड़े
उदास दिसम्बर उसी साल का जिस साल पत्ते हरे थे
प्रज्ञा के घर जब पहली बार गया था नरेश तब उसके साथ दो दोस्त थे राहुल और संजय.किसी लड़की के घर तीन दोस्त जाते है तो अपराध बोध नही होता और लड़की के घर वालो की नजर शंकालु हिकारत से भरी हुई नही होती है , इसी ख्याल ने नरेश को दो दोस्त के साथ जाने के लिए प्रेरित किया. प्रज्ञा की मॉ, बहन व भाई से परिचय न होने के बावजूद नरेश ने नमस्कार किया लेकिन उन्होने किसी के भी जवाब में नमस्कार, नमस्ते नही कहा, बस हाथ जोड़े हल्की सी मुस्कुराहट के साथ. नरेश को लगा पूछे , कैसे है आप ? या क्या हाल है?’’इस सवाल का जवाब तयशुदा मिलता ,’’ ठीक है, मजे में है .‘’तो सुनकर लगता कि जिन्दा है लोग.छोटे से शब्द ’जिन्दा’ होने का प्रमाण देते तो सुकून मिलता, लेकिन न जाने क्यो नरेश की हिम्मत ही नहीं हुई,सवाल करने की .अचानक चेहरा उतर गया, पकड़ा गया हो कि खामोशी के चंद लम्हों में प्रज्ञा की बहन-भाई भीतर चले गये थे . प्रज्ञा की मां ने पूछा था ,’’कैसे हो बेटा ?’’

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को   भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...