Saturday, January 12, 2013

कविता : लाठी

बहुत ही अजीबोगरीब सपने देखता हू
उसी तरह नहीं सोचता हूँ
दिमाग के भीतर किल ठोंक दी है हुक्मरान ने
किल के गले में तानकर स्प्रिंगनुमा तार अटका दिया है
उसपर लगातार डाला जा रहा है कुछ तो भी
जबकि उसी स्प्रिंगनुमा तार की जरुरत है माँ को ताकि
दरवाजे के दोनों सिरों पर उसे खीचकर
डाल सके पर्देनुमा कपडा लेकिन ये हो न सका तो
सफ़ेद नाड़े को जिम्मेदारी सौंप दी गई कि वह पर्देनुमा कपड़े को उठाकर खड़ा रहे

एकदम टाईट
सफ़ेद नाड़े ने देखा और हरा हो गया
कि दादी की तरह हो गया
अब कौन थमाए उसे लाठी

मेरे सपने में वह लाठी आ गई

किसी अखाड़े की गेरू से सनी हुई
कोई ढोल बजता हुआ
कई आवाज चलती हुई

सपने में ही कहता हूँ लाठी से तुम दादी के पास चले जाओ
या फिर माँ से मिल लो ताकि तुम्हे खड़ा किया जा सके दरवाजे पर
दिन में सोचता हूँ दरवाजे के भीतर पर्देनुमा कपड़े को सहारा देने के लिए
हो गया खड़ा तो
घर के भीतर माँ जायेगी कैसे
दादी अब चल भी नहीं सकती लाठी होने के बावजूद

मतलब मेरे घर के लिए लाठी गैर जरुरी है

फिर
मेरे सपने में क्यों आई
लाठी .
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''कैलाश वानखेड़े
20 sep.2012

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