Saturday, January 19, 2013

कहाँ जाओगी ,दुर्गा ... कविता

                                                         ---- कैलाश वानखेड़े 

जल रही है  आँख अभी जबकि पढ़ नहीं पाया पूरा अखबार
कि फेसबुक के सारे अपडेट पढ़ देख नहीं पाया
बस दिखी तस्वीर दुर्गा की
संदीप की वाल से उदय प्रकाश की  कविता तक आते आते मेरी आँखों में
धुंधलका आ गया
इनकार कर रहा है कोई भीतर से
चल गोली खा और सो जा .



सो रहा हूँ ढाई हजार से ज्यादा सालों से
उनकी अफीम बेहद कारगर है
सुला देती है भुला देती है
चुपके से बेटी को देकर नाम.
पिटती है ढिंढोरा कि बलशाली है
कि नाम होने से इतनी ताकत है
कि चमकीले चमचमाते बैग को उठाते हुए
कन्धा झुकता है कि पता ही नहीं चलता कि ,इतना भारी होगा.

बोलने वाला बोलता है चार बेग के साठ रुपे...?
चल छोड़ मै ही उठता हु
तेरको देख के लगा चार पेसे ईमानदारी के कमा लेगी
इधर उधर गुंडों के चंगुल से बच जाएगी
वरना...तुम्हारी उमर मासूमियत
भारी पड जाएगी ...देखती नहीं टीवी
कितने रेप ....
तभी तो केते हे पन्द्रह की उमर में कन्या दान कर
मौज मस्ती करो और भड़वों से डिमांड करों
पंद्रह की कमसीन काया की .

बेग वाला बुदबुदाता  है
चल ले पचास ..ठीक है

दुर्गा उठाती है बेग कि कमर पर जोर पड़ता है
पीठ इंकार करती है
लेकिन जबान के कारण  चुपचाप चलने के लिए कहता है दिमाग  .

गुटके ,बलगम से भरी हुई थूक, गन्दी लम्बी लपलपाती
निकलती है उसे  पटरी पर पटक देता है
 सोचता है उसने गंदगी नहीं की प्लेटफार्म पर
बस मरने के लिए छोड़ दिया पटरी पर
उसकी सही जगह पर.

इतना बोझा पचास रुपे में....बेकूफ बना दिया
तमाम लोगों की तरह
हम तो ढाई हजार से ज्यादा सालों से यूँ ही बेकूफ बनाते आये है,
तुम क्या हो दुर्गा ?

वह हँसता है कि बलगम की लम्बी बदरंग चिकनी लार
पीटर इंग्लेंड की शर्ट पर गिरती है
कि भागता है पानी के लिए प्याऊ के पास
पानी नहीं है
प्याऊ में
आदमी  नहीं जानता कि पानी नहीं है उसमें भी .
बडबडाता है अब तो इसे प्राइवेट सेक्टर को दे देना चाहिए
वे लगायेंगे आधुनिक यंत्र जो लार को निकाल दे
जैसे  थ्री इडियट में निकालता है बच्चा
वैकुम क्लीनर से
 मेरा बस चले तो
निकाल दू इस देश से ...किसे ?

बेटे को मेडिकल में दाखिले के लिए देना पड़े साढ़े तीन करोड़
स्साले ..माने ही नहीं तमाम सिफारिश के बाद भी
कहते है आपके बेटे के नं .नंबर कहलाने लायक भी नहीं है
आपको तो इसलिए दिया कि देसाईं  ने कहा था ...

बेग देखता है कही  रफू चक्कर न हो जाए
सस्ते मजदूर ,मजदूर ही रहे ताउम्र
तापीढ़ी
तो एडमिशन के लिए देना नहीं पड़ते साड़े तीन करोड़.

उससे तो गधे की शादी करवा देता ,लेता ढेर सारा दहेज़
लेकिन इस कोटे सिस्टम ने कही का नहीं रखा

आ जाते है
अब इसे ही देखा इतने बोझे के लेने चाहिए डेढ़ सौ
और खुश हो गई पचास में
इनमें अक्कल ही नहीं
जो हममे है
है हमारे भीतर योग्यता
काबिलियत तो हमारे खून में रग रग में  है
 इतनी है कि पेशाब घर में विसर्जित करनी पड़ती है
लटका कर जनेऊ

पेशाब से उसे मॉल याद आया कि बच्चों के लिए होती है जैसे ट्राली
वैसे ही स्टेशन पर होना चाहिए ,बड़ों के लिए
तैयार है हम पैसा देने को ताकि रोजगार  मिल सके
यह तो तभी हो सकता है जब प्राइवेट सेक्टर के पास चली जाए रेल
तब कोई नहीं कहेगा कि इन्सान को मशीन बना दिया
कि बेरहम है
बताओं कोई बोलता है राजधानी में  इंसानी रिक्शे को देखकर

यहाँ बिहारी आ जाये तो ...अपने तो मजे ही मजे
वैसे इसका बाप यहाँ होता तो उसके काँधे पर बैठकर निकलता स्टेशन से बाहर
पर ..कमाने की समझ होती तो ,,होती अकल...

क्यों नही पढ़ रही दुर्गा
क्या करते है तुम्हारे पिता
क्या मज़बूरी है कि
कुली बन गई हो वहां ,जहाँ है घने जंगल
जंगल में होते है ढेर सारे फल ,औषधि ....

सवाल नहीं करता बेग पर नजर गडाए बेटे के लिए साढ़े तीन करोड़
देने वाला ,
आप करते है ?

लेने वाला कहाँ रखता होगा
कहाँ कहाँ बांटता होगा
उसका बेटा क्या करता होगा ...

कोई नहीं करता सवाल

बोलता नहीं

मै चुप हूँ कि लिख रहा हूँ ...

इतना लिख चूका हूँ कि
अम्बेडकर ही अम्बेडकर दिखते है मुझे
बता चूका हूँ कि बुखार में हु
जल रही है आँखे
पढ़ नहीं पा रहा हूँ
कि लिख रहा हूँ
कि लिख पाया हूँ बाबा साहब के बदौलत
कि बुद्ध कबीर फुले सावित्री पेरियार है मेरे साथ

पूछना चाहता हूँ ,दुर्गा तुम्हारे साथ कौन है ?

कि बेग वाला सवार हो गया है
जो याद करता है कोई सामान भूल तो नहीं गया हूँ
वह मुस्कुराता है भूलता नहीं हु कि काबिल हू
ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाया तो क्या ?
बाप की संपति ही इतनी थी कि चाकरी करने की बजाय
रख लिए कई चाकर
इस नालायक को इतनी उमर तक अकल आ ही नहीं पाई
काम धंधा सीख नही पाया न पढ़ पाया बेटा
कभी कभी तो लगता  है इसका डीएन ए करवा लूँ....

''कहाँ चलना है साब ?'' तन्द्रा तोड़ता है रिक्शे वाला .
''बालाजी  मंदिर ,,"
'' कितना लोगे ....
''भगवान् के पास जा रहे हो ,जितनी श्रध्दा भक्ति हो दे देना .''
'' बेकूफ समझ रखा है ?सीधे बोल कितने लेगा ?''
'' दो सौ लगते है ..पेली बार आये हो शायद ..सबको मालूम है .''
'' सौ ..वरना तांगे में चला जाऊंगा ...घोड़े की सवारी ..''
''अपने पास रख ..तांगे से भी क्या जाता है  ..पैदल जाओंगे तो कुछ भी नहीं लगेगा .''
''तमीज से बोल ...." दुर्गा को देखता है .मन ही मन बोलता है ,देखो तो सही कितने भाव बढ़ गए ..
उसे भाव तभी याद आता जब अपनी कार में डलवाता है पेट्रोल ,कितने भाव  बढ़ गए  इनके ...
'' सौ बोलने से सोचना था ..तमीज हमें सिखाता है ...चल हट ..''
जी आता है दो लगाऊ ...उसके बदन को देखकर इरादा बदलता है और
पचास का गाँधी का नोट  बढ़ाता है  दुर्गा के सामने
दुर्गा अपने सिर पर रखे गर्दन ,कमर तोड़नेवाले ''अमेरिकन टूरिस्ट  ''
को उतारना चाहती है कि
उसका हाथ इंकार करता है
धड़ाम ...
अमेरिकन टूरिस्ट  के गिरते ही ,बेग वाले को लगता उसे गिरा दिया है
धूल से सना गाँधी वाला नोट निकल चूका है हाथ से
बडबडाता है
औरतों  से कोई काम ढंग का होता ही नहीं है ....
उनकी जगह किचन में या बेडरूम में ही है ...


दुर्गा...
आँख जल रही है मेरी
कि बुखार से तप रहा हूँ
और पढ़ नहीं पा रहा हूँ नईदुनिया
जिसके पेज थ्री पर लिखा है शहर की सड़क ठीक नहीं है
धूल और गड्डों को देखकर ग्लोबल इन्वेस्टर  कैसे मीट करेंगे
कैसे  होगा आयोजन ? बचे है सत्रह दिन ..मंत्री जी ,अखबार अफसर सबकी
जायज चिंता के बीच तुम,  तुम्हारा फेस है फेसबुक पर

मुक्तिबोध की दुविधा में रह रहा हूँ कई दिन से
कहाँ जाऊ ,उज्जैन  या दिल्ली....

मै संविधान में भरोसा करता हुआ
तय करता हूँ.
दुर्गा ...सच सच बताना
तुम्हारे पास क्या है भरोसे के लिए ...


(संदीप नाईक की खबर फोटो को देखते हुए और उदय प्रकाश की कविता पढ़कर ,बैतूल की महिला कुली दुर्गा पर अपनी प्रतिक्रिया इस शक्ल में आई है .)



8 comments:

kailash said...

उदय प्रकाश जी की कविता यहाँ पढ़ सकते है .https://www.facebook.com/notes/uday-prakash/%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A4%BE/428973180483415

kailash said...

समर अनार्य ----Kailash Wankhede की यह कविता पढ़ें, मैं तीन दिन में इससे उबर नहीं पाया हूँ. कुछ है जो अन्दर उबल रहा है..
इसमें पराजित सा आक्रोश है, अभिशापित अनुनाद है.. लड़ते रहने और हारते जाने की पीड़ा है. और इन सबके बाद भी, कहीं बहुत भीतर छिपी हुई और लड़ने को मिल रही ऊर्जा है..
Sandip Naik --आभार सच में इतनी सुन्दर कविता और भाव शब्द नहीं है मेरे पास................Alok Jha, Uday Prakash, Amey Kant, Shrikant Telang, Bahadur Patel, Satya Patel, Manish Vaidya, आदि दोस्तों के लिए

Sachin Kumar Jain ·
adbhut

Sudha Singh कितना मार्मिक लिखा आपने .......हृदय द्रवित हो गया ............और अच्छा लगा की आप इतना कोमल हृदय रखते है ........बहुत मार्मिक रचना

Sheela Dahima -----nice written. the sour truth


Uday Prakash ------बहुत मार्मिक... और सच्चे आत्मबोध से लिखी गयी कविता ....(और ..यह 'बुखार' ..ये डिलीरीयम इस बात का सबूत है कि अन्याय की अब हद हो चुकी है ....! एक ईमानदार ..अभिव्यक्ति....)


Ashok Kumar Pandey-- कैलाश भाई, यह उन कविताओं में से है जो अपने ताप से, अपने उद्वेलन से, अपनी त्वरा से खुद अपनी राह बनाती है. कोई तयशुदा शिल्प इन्हें बाँध नहीं सकता है. इस तरह की रचना अपना शिल्प खुद गढ़ती है, और इसने गढ़ा है. मैं इसके लिए आपको बधाई नहीं दूंगा...सलाम करूंगा!!


Abha Nivsarkar Mondhe---- बोलने वाला बोलता है चार बेग के साठ रुपे...?

चल छोड़ मै ही उठता हु

तेरको देख के लगा चार पेसे ईमानदारी के कमा लेगी

इधर उधर गुंडों के चंगुल से बच जाएगी

वरना...तुम्हारी उमर मासूमियत

भारी पड जाएगी ...देखती नहीं टीवी

कितने रेप ....

तभी तो केते हे पन्द्रह की उमर में कन्या दान कर

मौज मस्ती करो और भड़वों से डिमांड करों

पंद्रह की कमसीन काया की .
जहर बुझे तीर की तरह दन्न से लगती है... और फिर दिमाग के सारे तार सुन्न कर देती है.... सुबह से न जाने कितनी बार पढ़ चुकी हूं.... और हर बार पढ़ने के बाद समझ ही नहीं आता कि करूं क्या कहूं क्या....

अलकनंदा साने-- मार्मिक और मर्मभेदी भी...

Buddhesh Vaidya---- विलक्षण, सर, इतनी साफगोई कैसे हो पाती है, आश्चर्य, किन्तु सच कहने का साहस होना भी असाधारण बात है,
मै केवल उद्वेलित हो सकता हूँ , अभिभूत हो सकता हूँ, बधाई सर.

Devyani Bhardwaj---- kamal hai kailashji... shandaar kavita... durga ke bahane samay ki tamam jatiltaon ki kahati hai..

Aflatoon Afloo जबरदस्त,कैलाश जी.

mukti said...

सच में, बहुत ज़बरदस्त कविता है.

Avanish Gautam said...

बडी ईमनदार कविता है कैलाश जी!!

Ek ziddi dhun said...

कैलाश भाई, बच रहा था पढ़ने से तो सही ही बच रहा था। परेशान करके रख देने वाली कविता है।

kailash said...

लम्बी कविता देखकर बचने का मन होता है .आप सबने पढ़ा .शुक्रिया

विमलेश शर्मा said...

जेहन को झकझोरने वाली कविता..

विमलेश शर्मा said...

जेहन को झकझोरने वाली कविता..

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को   भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...