Wednesday, January 16, 2013

हाँ मै दलित हूँ

मेरे माथे पर नहीं लिखा है
लेकिन मेरा चेहरा बोलता है
बोलते है घुसर फुसुर करते हुए
सैकड़ों मुहँ धारी
पढ़ लेते है कागजात
पता लगा लेते है इधर-उधर से.
जब मालूम न पड़े तो
पूछ लेते है
मराठा हो
बामन ..
रुकता है
बुलवाने के लिए मेरे मुहँ से मेरी जाति
क्या है आप ..

उस हरामी की जुबान लगातार चलती रहती है
उसके दिमाग में अटक जाता है
उसके गले में थूक रुक जाता है
जब तक जान न ले मेरी जात
तब तक उसे पड़ती रहती है लात

वह क्यों जानना चाहता है
उसकी बेटी के लिए
उसकी रिश्तेदारी में किसी ..
न न मेरी उम्र बताती है मेरी शादी हो चुकी है
फिर
फिर
क्यों
तमाम गालिया मेरे पास आकर इंतजार में है
मै चुप हूँ कि
ख़ामोशी की विरासत का वाहक माना गया
कि जिसे कमजोरी समझा गया
कि दमन कर पिसा गया

जैसे सहन कर लेते है हर अडवे -भडवे के
आलतू-फालतू सवाल ,जिज्ञासा को
चलों  ठीक है
बस यही उदारता हमारी कमजोरी बताई जाती है
हम चुप होते है .
जवाब देता हू ,
हाँ मै दलित हूँ .

चुप हो जाता हूँ.

क्या मजाक कर रहे है
नहीं नहीं आप कोटे वाले नहीं हो सकते

कहता है मानसिक विकृति का शिकार
और ही ही ही ही करता है ...
सुकून मिलता है कि जान गया जाति मेरी
ढिंढोरा पिटने के लिए
सबसे पहले की खोज स्खलित हो जाती है.

अजीब सा  लगता था
और भूल जाता था

अब भूल नहीं पाता हूँ
भूलना नहीं चाहता हूँ
जिसे हल्का स भी कन्फूजन हो
हो कही दिमाग की नली में अटका हुआ
जो आपको गटर में तब्दिल कर रहा
उन सबसे कहना है ,आँखों में आँख डालकर
हाँ ,मै दलित हू .
क्या तुम्हें कह सकता हूँ ,भाई संबोधन से .
मेरे देश के नागरिक
वसुधैव कुटुम्बकम से ग्लोबल विलेज के हिमायती
मारी तो नहीं गई तुम्हारी मति.

19 comments:

mukti said...

मैं ये तो नहीं कह सकती कि 'मैं समझ सकती हूँ आपकी पीड़ा, आपका गुस्सा, आपका क्षोभ' क्योंकि मैं कभी नहीं समझ सकती. जिसने जिस यथार्थ को भोगा ना हो, वह सिर्फ सहानुभूति कर सकता है 'स्वानुभूति' नहीं. और सहानुभूति की मैं प्रबल विरोधी हूँ क्योंकि मानती हूँ कि इस मुद्दे पर सबको गुस्सा आना चाहिए, सहानुभूति नहीं.
हाँ, इतना ज़रूर कह सकती हूँ कि कुछ लोग हैं ऐसे भी, जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी जाति क्या है. जिनके लिए आप सिर्फ एक अच्छे इंसान हैं, जो सच बोलने से कभी नहीं हिचकता और ऐसा कड़वा सच बोलता है कि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का गान गाने वालों की बोलती बंद कर देता है.

kailash said...

फेस बुक पर अंकित विचार यहाँ कापी कर दी .

Pallavi Trivedi---------------- निशब्द हूँ.. सदियों की पीड़ा सिमट आई इन शब्दों में

पुष्पेन्द्र फाल्गुन----------------- कहता है मानसिक विकृति का शिकार
और ही ही ही ही करता है ...
सुकून मिलता है कि जान गया जाति मेरी
ढिंढोरा पिटने के लिए
सबसे पहले की खोज स्खलित हो जाती है.

Anjali Gautam -----------------bahut badia !

Sitare Hind---------- ---------जातिवादी सकीर्ण मानसिकता के लोग भरे पड़े हैं .यह धीरे -धीरे ही सही पर समाप्त जरुर होगी ..................................

Abha Nivsarkar Mondhe---------- like like like
·
Sanen Singh-------------- aapne to hila ke rakh diyaa !! bahut achhe se kataksh kiya hai !! main kasha chahta hu us varg se jise dalit samjha jata hai !! aage ek behtar bhavishya hai aur sabhi logo ko sath chalna hai !! kailash ji aapki yeh rachna us behtar kal ke liye jaruri hai !!!

Buddhesh Vaidya----------- Itna kathor sach likhne ka sahas aap hi kar sakte hai. Lakeer badi kheenchni hogi sir.

कैलाश चंद चौहान said...

हर कोई जानने में लगा रहता है, दूसरे की जाति. खासकर उसकी जो किसी तरह अच्छे पदों पर पहुंचे है, दलित हुआ तो उससे इर्ष्या करेगा. मन ही मन या दूसरे से उसके प्रति गाली निकालने का मौका मिला जाएगा. यदि अपनी बिरादरी का हुआ तो गर्व करेगा, उससे जाति का वास्ता देकर अपना काम निकालने का प्रयास करेगा. कैलाश वानखेड़े की कविता हर दलित का दर्द है.
-कैलाश चंद चौहान, रोहिणी दिल्ली

Basant said...

यह हर दलित का ही नहीं हर संवेदनशील का दर्द होना चाहिए लेकिन मेरे चाहिए कहने से क्या होता है ? चाहिए तो बहुत कुछ लेकिन वह कहाँ होता है ? आमतौर पर अपनी जाति पर गर्व करने वाले भरे पड़े हैं . जन्म से मरण तक जाति पूछी जाती है , गोत्र पूछा जाता है. मै स्वयं इस सारे प्रक्रम का विरोधी हूँ और कैलाश जी को बधाई देता हूँ कि उन्होंने इस दर्द को पूरी तरह से व्यक्त किया है.

आशुतोष कुमार said...

हमारी धूर्तता और पाखंड के मर्म पर सीधी चोट करती एक धारदार ईमानदार कविता !

Farid Khan said...

बहुत ख़ूब।

Himanshu Kumar said...

ज़ोरदार

PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड said...

मर्मान्तक...

kailash said...


Nana Pawar Be Uniteddddddddddddddddddddd
September 22
Kailash Wankhede मै इस सफर में हू और हैरान हूँ

Sapkale Sandeep कैलाश भाई कविता ने बहुत सारे सामाजिक संबंधों को बहुत विस्तार से प्रस्तुत किया है | 'दलित' मात्र अस्मिता नहीं बल्कि लेखन की कला को फावड़े और कुदाल से तराशने की एक विराट जद्दोजेहद है |

Musafir D. Baitha जब मालूम न पड़े तो
पूछ लेते है
मराठा हो
बामन ..
रुकता है
बुलवाने के लिए मेरे मुहँ से मेरी जाति
क्या है आप ..
उस हरामी की जुबान लगातार चलती रहती है
उसके दिमाग में अटक जाता है
उसके गले में थूक रुक जाती है
जब तक जान न ले मेरी जात
तब तक उसे पड़ती रहती है लात
***************
अब भूल नहीं पाता हूँ
भूलना नहीं चाहता हूँ
जिसे हल्का स भी कन्फ्यूजन हो
हो कही दिमाग की नली में अटका हुआ
जो आपको गटर में तब्दील कर रहा
उन सबसे कहना है,आँखों में आँख डालकर
हाँ,मै दलित हू .

चंद शब्दों में कहूँ तो...बड़ी कविता

Vaibhav Chhaya सुंदर . एक बार प्रयास किजीए इन जातीयवादी मानसिकताओ की अपनी आईडी बौद्ध होने की बताकर । बाद में देखिए इनका रवैय्या ।

Ravindra Kumar Goliya Superlike...hamari aapki sabki aapbeeti hai sir..
Gurinder Azad Bhaijaan ! Aapka haath apne haath me lekar kehna chahta hoon 'wah'!

Asang Ghosh अद्भूत कवि‍ता है....

Satyaketu Sankrit भाई कमाल कर दिया आपने। यह कविता तो जातिवादी संकीर्णताओं पर मूर्तिभंजक सा प्रहार करती दिखाई पड़ रही है।आपका यह आत्मविश्वास निश्चित ही काल अश्व की वल्गा पर आपकी पकड़ मजबूत करने में सहायक होगा।

Motisingh Rawat your performance becomes poor from excellence once it is known that u belong to that community.

Santosh Govind Gawai Badhiya...

kailash said...

Vivek Patidar--- Bhai sahab aapki kavita hamri vikrat mansikta par gahri chot hai! Aap ko mahan

Rakesh Achal कविता का काम आक्रोश व्यक्त करना अवश्य है,किन्तु कविता लगभग गलियां देने का औजार नहीं है.वैसे इस कविता से बड़ी बात "-जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान"में भी उसी तीव्रता से कही गयी है जिस तीव्रता से कैलाश जी की कविता में ध्वनित होती है.फिर भी बधाई है

Sanjay Grover वसुधैव कुटुम्बकम से ग्लोबल विलेज के हिमायती
मारी तो नहीं गई तुम्हारी मति.
achchha hai.

Avadhesh Preet ---क्या तुम्हें कह सकता हूँ ,भाई संबोधन से .
Kailash bahi, kavita gehre tak asar karti hai.Peeda ki abhivakti sajawati upadano se nahi hoti.aabhijat kala ruchiyon se aisi ghanghor peeda ka sampreshan sambhaw nahi. han,aap mere bhai ho jab chahe pukar lo

Kailash Wankhede ----Avadhesh Preetji ..आपको तो हक़ से पुकारूँगा .

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

महान विचारक कह गए हैं कि जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिये ज्ञान ..... पर बस हम केवल पढ़ते हैं और सोचते हैं ज्ञानी बन गए ..... एक संवेदनशील दलित की पीड़ा को बखूबी लिखा है वैसे तो लोग प्रमाण पत्र ले कर शान से कहते हैं कि जी हाँ हम दलित हैं .... हमें किसी भी विश्व विद्यालय में प्रवेश से कोई नहीं रोक सकता .....

Unknown said...

nice

विमलेश शर्मा said...

यही कविता खोज रही थी.. स्वानुभूत जब बयां होता है भावनात्मक स्तर पर सर चढ़ कर बोलता है.. वहाँ अभिव्यक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह हर मन को उद्वेलित कर देती है.. साधुवाद..

विमलेश शर्मा said...

यही कविता खोज रही थी.. स्वानुभूत जब बयां होता है भावनात्मक स्तर पर सर चढ़ कर बोलता है.. वहाँ अभिव्यक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह हर मन को उद्वेलित कर देती है.. साधुवाद..

Unknown said...

हाँ में दलित हूँ, आपकी कविता पड़ी देश के जातिबाद को बया करती एक अनुपम कृति है, साथ ही दलितों में असीम साहस और मनोबल बढ़ाती है

Unknown said...

हाँ में दलित हूँ, आपकी कविता पड़ी देश के जातिबाद को बया करती एक अनुपम कृति है, साथ ही दलितों में असीम साहस और मनोबल बढ़ाती है

Unknown said...

हाँ में दलित हूं,देश की सच्चाई को यथार्थरूप से प्रस्तुत करती एक अनुपात कृति है, साथ ही दलितों में साहस और मनोबल बढ़ाने का सार्थक प्रयास

Unknown said...

हाँ में दलित हूं,देश की सच्चाई को यथार्थरूप से प्रस्तुत करती एक अनुपात कृति है, साथ ही दलितों में साहस और मनोबल बढ़ाने का सार्थक प्रयास

Unknown said...

आज दैनिक भास्कर में आपके इस लिख के बारे में पड़ा I search it on fb par I can't found over there then google help me to found your blog
Well said sir keep it up

झोपड़पट्टी के मासूम फूलों का झुंड

                     जिंदगी,झोपडपट्टी की अंधेरी संकरी गलियों में कदम तोड़ देती है और किसी को   भी पता नहीं चलता है।जीवन जिसके मायने किसी को भ...