Monday, June 25, 2012

अगली बार....कविता

अगली बार

कई बार हलफनामा लिखना चाहा ..
तय होने के बाद कई दफ़े पेन न मिल सका ..
तब तुम्हारी आँखें  पढ़ती रही मुझे
और स्थगित किया लिखना हलफनामा .
भूल गया कि पेन की तलाश मे था

तुम नहीं हो
तुम हो भी नहीं सकती
फिर कैसे आ जाती है तुम्हारी आँखे
तपते हुए मन की प्यास बुझाने, लेकर अजस्र स्रोत के कुएँ के साथ
यकिनन मै न चाहते हुए चुप हूँ
खामोशी मिजाजी में तब्दील हो गया हूँ
कि फूटा हुआ हंडा हो गया हूँ
लगातार भरती हो पानी
फिर भी खाली लगता हूँ खुद को
औरों को

यादों की ज्वालामुखी पर बैठा हू
कि ठंडा होता ही नहीं हू
कि सुनता हूँ  प्रेम का दण्ड देता है वह वर्णाश्रम की निर्धारित व्यवस्था मुताबिक
अभी अभी  मारा गया ईखारे शेगांव के गाँव मेँ
जहां खामगांव की बड़ी बड़ी फैक्ट्रियाँ का धुआँ भरा है
धुँआ  तय करता है कि सड़क कि तरह बढ़ गया विकास 
कि वहाँ  राष्ट्र का रोड सूरत से होकर गुजरता हुआ नागपूर में आता है
उसे दीक्षा भूमि  दिखती है
और  वह भागता हुआ रायपुर से सम्बलपुर की ओर जाता है कि
जो खंबात की खाड़ी में नर्मदा को गिराकर निकला है
पकड़ न ले कोई
उस पगले को कहाँ पता कि किसे फिक्र है
जो उसे पहचान सके

उस
 गाली की शक्ल की गन्दी नाली
जिसके कारण मारा गया इखारे
उसी हिसाब से लिखना चाहा था पीकर बकरी का दूध
कि इसी पर चलकर सभी को अपनी अपनी हद में अपने बाप दादाओं का काम संभाल लेना चाहिए
उसे सड़क पर बहा देना चाहता हूँ
उस सड़क पर चले  ट्रक ,ट्रेक्टर ,चप्पल और जूते
कि रिसाइकलिंग कर नए पौधों को मिले जीवन
उस पौधे के गेंदा फूल को देकर
कहना चाहता हूँ कि चाहता हूँ
कि एक अदद जबान भी रखता हूँ
तुम अपने कान सलामत रखना
अगली बार
जरुर कहूँगा

2 comments:

Santosh said...

पहला हर्फ़ और हिज्ज़ा पढ़ते समय ये लगा कि ये कोई प्रेम कविता है लेकिन दूसरे खंड में आते आते यह एक विद्रोही प्रेम में बदल गया और अंत में ये तेवर कि "कि एक अदद जबान भी रखता हूँ,तुम अपने कान सलामत रखना,अगली बार,जरुर कहूँगा"! क्या बात है कैलाश भाई ! इसी अंतिम दो-तीन पंक्तियों में सारा सार निकल के आ जाता है ! बधाई आपको और आभार पढवाने के लिए !

संतोष कुमार चौबे said...

प्रेम..विद्रोह ..और यथास्थिति का सार्थक प्रतिरोध .....किस सहजता से घुल मिल जाते हैं एक सामाजिक यथार्थ को अनावृत करती इस ख़ूबसूरत कविता में ....बधाई !!

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